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Friday

मुंसी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता, जिसके एक-एक शब्द को बार-बार पढ़ने को मन करता है

मुंसी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता, जिसके एक-एक शब्द को बार-बार पढ़ने को मन करता है

_ख्वाहिश नहीं मुझे_
_मशहूर होने की,"_

        _आप मुझे पहचानते हो_
        _बस इतना ही काफी है।_


_अच्छे ने अच्छा और_
_बुरे ने बुरा जाना मुझे,_

        _जिसकी जितनी जरूरत थी_
        _उसने उतना ही पहचाना मुझे!_


_जिन्दगी का फलसफा भी_
_कितना अजीब है,_

        _शामें कटती नहीं और_
        _साल गुजरते चले जा रहे हैं!_


_एक अजीब सी_
_'दौड़' है ये जिन्दगी,_

        _जीत जाओ तो कई_
        _अपने पीछे छूट जाते हैं और_

_हार जाओ तो_
_अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं!_


_बैठ जाता हूँ_
_मिट्टी पे अक्सर,_

        _मुझे अपनी_
        _औकात अच्छी लगती है।_

_मैंने समंदर से_
_सीखा है जीने का सलीका,_

        _चुपचाप से बहना और_
        _अपनी मौज में रहना।_


_ऐसा नहीं कि मुझमें_
_कोई ऐब नहीं है,_

        _पर सच कहता हूँ_
        _मुझमें कोई फरेब नहीं है।_


_जल जाते हैं मेरे अंदाज से_
_मेरे दुश्मन,_

              _एक मुद्दत से मैंने_
       _न तो मोहब्बत बदली_ 
      _और न ही दोस्त बदले हैं।_


_एक घड़ी खरीदकर_
_हाथ में क्या बाँध ली,_

        _वक्त पीछे ही_
        _पड़ गया मेरे!_

_सोचा था घर बनाकर_
_बैठूँगा सुकून से,_

        _पर घर की जरूरतों ने_
        _मुसाफिर बना डाला मुझे!_


_सुकून की बात मत कर_
_ऐ गालिब,_

        _बचपन वाला इतवार_
        _अब नहीं आता!_

_जीवन की भागदौड़ में_
_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_

        _हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
        _आम हो जाती है!_


_एक सबेरा था_
_जब हँसकर उठते थे हम,_

        _और आज कई बार बिना मुस्कुराए_
        _ही शाम हो जाती है!_


_कितने दूर निकल गए_
_रिश्तों को निभाते-निभाते,_

        _खुद को खो दिया हमने_
        _अपनों को पाते-पाते।_


_लोग कहते हैं_
_हम मुस्कुराते बहुत हैं,_

        _और हम थक गए_
        _दर्द छुपाते-छुपाते!_


_खुश हूँ और सबको_
_खुश रखता हूँ,_

        _लापरवाह हूँ ख़ुद के लिए_
        _मगर सबकी परवाह करता हूँ।_

_मालूम है_
_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_

        _कुछ अनमोल लोगों से_
        _रिश्ते रखता हूँ।_