Saturday

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Thursday

परम मित्र (दोस्त) कौन है?

      *🍂परम मित्र कौन है?🍂*

   *एक व्यक्ति था उसके तीन मित्र थे।*

   *एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ देता था। एक पल, एक क्षण भी बिछुड़ता नहीं था।*

    *दूसरा मित्र ऐसा था जो सुबह शाम मिलता।*

    *और तीसरा मित्र ऐसा था जो बहुत दिनों में कभी कभी मिलता था।*

    *एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उस व्यक्ति को अदालत में जाना था और किसी कार्यवश साथ में किसी को गवाह बनाकर साथ ले जाना था।*

   *अब वह व्यक्ति अपने सब से पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला:-*

     *"मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो ?*

      *वह मित्र बोला :- माफ़ करो दोस्त, मुझे तो आज फुर्सत ही नहीं।*

    *उस व्यक्ति ने सोचा कि यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था। आज मुसीबत के समय पर इसने मुझे इंकार कर दिया।*

    *अब दूसरे मित्र की मुझे क्या आशा है?*

    *फिर भी हिम्मत रखकर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह शाम मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।*

   *दूसरे मित्र ने कहा कि :- मेरी एक शर्त है कि मैं सिर्फ अदालत के दरवाजे तक जाऊँगा, अन्दर तक नहीं।*

    *वह बोला कि :- बाहर के लिये तो मै ही बहुत हूँ मुझे तो अन्दर के लिये गवाह चाहिए।*

    *फिर वह थक हारकर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।*

     *तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरन्त उसके साथ चल दिया।*

     *अब आप सोच रहे होंगे कि... वो तीन मित्र कौन है...?*

*तो चलिये, बताते है इस कथा का सार ।*
    
    *जैसे हमने तीन मित्रों की बात सुनी वैसे हर व्यक्ति के तीन मित्र होते हैं।*

    *सब से पहला मित्र है हमारा अपना 'शरीर' हम जहा भी जायेंगे, शरीर रुपी पहला मित्र हमारे साथ चलता है। एक पल, एक क्षण भी हमसे दूर नहीं होता।*

     *दूसरा मित्र है शरीर के 'सम्बन्धी' जैसे :- माता - पिता, भाई - बहन, मामा -चाचा इत्यादि जिनके साथ रहते हैं, जो सुबह - दोपहर शाम मिलते है।*

      *और  तीसरा मित्र है :- हमारे 'कर्म' जो सदा ही साथ जाते है।*

     *अब आप सोचिये कि आत्मा जब शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चलकर साथ नहीं देता। जैसे कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया।*

     *दूसरा मित्र - सम्बन्धी श्मशान घाट तक यानी अदालत के दरवाजे तक "राम नाम सत्य है" कहते हुए जाते हैं तथा वहाँ से फिर वापिस लौट जाते है।*

     *और  तीसरा मित्र, कर्म हैं। कर्म जो सदा ही साथ जाते है चाहे अच्छे हो या बुरे।*

     *अब अगर हमारे कर्म सदा हमारे साथ चलते है तो हमको अपने कर्म पर ध्यान देना होगा अगर हम अच्छे कर्म करेंगे तो किसी भी अदालत में जाने की जरुरत नहीं होगी।*

Tuesday

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान एम्स ऋषिकेश में एयर एंबुलेंस सेवा शुरू

मंगलवार को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान एम्स ऋषिकेश में एयर एंबुलेंस सेवा की ट्रॉयल लेंडिंग सफल रही। इसके साथ ही एम्स ऋषिकेश देश का पहला ऐसा सरकारी स्वास्थ्य संस्थान बन गया है जिसमें अपनी हेलीपेड की सुविधा उपलब्ध है। इससे राज्य के विभिन्न हिस्सों में आपदा के समय घायल होने वाले लोगों को सुगमता से उपचार के लिए एम्स ऋषिकेश पहुंचाया जा सकेगा। जिससे आईडीपीएल,जौलीग्रांट आदि स्थानों पर एयर लिफ्ट कर लाए जाने वाले मरीजों को एम्स तक पहुंचाने में लाइफ सेविंग की दृष्टि से होने वाली देरी अब नहीं होगी।          
गौरतलब है कि राज्य के विभिन्न हिस्सों में होने वाली आपदाएं अथवा सड़क दुर्घटनाओं में गंभीररूप से घायलों को राज्य सरकार की ओर से एयर लिफ्ट करके एम्स में उपचार के लिए भर्ती कराया जाता है। इससे पूर्व घायलों को आईडीपीएल हेलीपैड, जौलीग्रांट आदि स्थानों पर हेलीकाप्टर को लेंड कर घायलों को सड़क मार्ग से एम्स ऋषिकेश पहुंचाया जाता था।जिससे मरीजों को एम्स तक पहुंचाने व उपचार में विलंब होता था, जिससे मरीजों खासकर ट्रॉमा पेशेंट की रिकवरी में जोखिम बना रहता था। 
राज्य में विभिन्न दुर्घटनाओं में घायलों को तत्काल एम्स में उपचार के लिए पहुंचाने के मद्देनजर एम्स प्रशासन ने कैंपस में  हेलीपैड बनाया था । सिविल एविएशन की गाइडलाइन्स के अनुसार, एम्स प्रशासन द्वारा राष्ट्रीय विमान पत्तन प्राधिकरण के मानकों  पर आधारित हेलीपैड तैयार कर दिया गया था,जिसे बीते दिवस नागर विमान मंत्रालय के तहत कार्यरत डीजीसीए द्वारा अनापत्ति प्रमाणपत्र दे दिया था।  डीजीसीए की एनओसी के बाद मंगलवार को एम्स के हेलीपैड पर पहली ट्रॉयल लेंडिंग सफलतापूर्वक कर ली गई।
इस ट्रायल लैंडिंग में एम्स निदेशक प्रो. रवि कांत जी जॉलीग्रांट से एम्स  हेलीकॉप्टर द्वारा पहुँचे। इनके साथ उत्तराखंड सरकार के नागरिक उड्डयन सलाहकार कैप्टेन दीप श्रीवास्तव भी थे। उन्होंने बताया कि यह मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत जी का ड्रीम प्रोजेक्ट था जिसकी ट्रायल लैंडिंग  सफल रही ।  एम्स ऋषिकेश में एयर एम्बुलेंस सेवा का मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत निकट भविष्य में विधिवत उद्घाटन करेंगे। 
इस अवसर पर एम्स निदेशक पद्मश्री प्रोफेसर रवि कांत जी ने बताया कि गंभीर मरीजों को तत्काल उपचार दिलाने के लिए राज्य सरकार के साथ साथ एम्स प्रशासन भी गंभीर है,जिसके मद्देनजर एम्स की ओर से परिसर में हेलीपैड का निर्माण करा दिया गया है। उन्होंने बताया ​कि उक्त कार्य में राज्य सरकार व सूबे के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत जी की ओर से एम्स को हरसंभव सहयोग किया गया। 
एम्स ऋषिकेश के एविएशन एवं एयर रेस्क्यू सर्विसेज के इंचार्ज डॉ. मधुर उनियाल जी ने बताया कि एम्स राज्य के किसी भी हिस्से में होने वाली आपदा व सड़क दुर्घटना के घायलों को तत्काल उपचार दिलाने के लिए राज्य सरकार के साथ पूरी तरह से संकल्पबद्ध होकर सहयोग कर रहा है,जिसके मद्देनजर मरीजों की लाइफ सेविंग के लिए कैंपस में ही हेलिपैड बना लिया गया है,जिससे भविष्य में घायलों को परिसर में एयरलिफ्ट कर पहुंचाया जा सकेगा और जल्द से जल्द उनका इलाज शुरू कर दिया जाएगा। इस अवसर पर ​डीन एकेडमिक प्रो. मनोज गुप्ता, डीन अस्पताल प्रशासन प्रो. यूबी मिश्रा, उपनिदेशक प्रशासन अंशुमान गुप्ता, प्रो. ब्रिजेंद्र सिंह, प्रो. कमर आजम,  अधीक्षक अभियंता अनुराग सिंह, डा. बलराम जीओमर, जनसंपर्क अधिकारी हरीश मोहन थपलियाल, रजिस्ट्रार राजीव चौधरी तथा अन्य संकाय सदस्य आदि मौजूद थे।

बांस की लकड़ी को क्यों नहीं जलाया जाता है? इसके पीछे धार्मिक कारण है या वैज्ञानिक कारण ?

बांस की लकड़ी को क्यों नहीं जलाया जाता है?

इसके पीछे धार्मिक कारण है या वैज्ञानिक कारण ?

हम अक्सर शुभ (जैसे हवन अथवा पूजन) और अशुभ (दाह संस्कार) कामों के लिए विभिन्न प्रकार के लकड़ियों को जलाने में प्रयोग करते है लेकिन क्या आपने कभी किसी काम के दौरान बांस की लकड़ी को जलता हुआ देखा है। नहीं ना?

भारतीय संस्कृति, परंपरा और धार्मिक महत्व के अनुसार, 'हमारे शास्त्रों में बांस की लकड़ी को जलाना वर्जित माना गया है। यहां तक की हम अर्थी के लिए बांस की लकड़ी का उपयोग तो करते है लेकिन उसे चिता में जलाते नहीं।' हिन्दू धर्मानुसार बांस जलाने से पितृ दोष लगता है वहीं जन्म के समय जो नाल माता और शिशु को जोड़ के रखती है, उसे भी बांस के वृक्षो के बीच मे गाड़ते है ताकि वंश सदैव बढ़ता रहे।

क्या इसका कोई वैज्ञानिक कारण है?
बांस में लेड व हेवी मेटल प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। लेड जलने पर लेड ऑक्साइड बनाता है जो कि एक खतरनाक नीरो टॉक्सिक है हेवी मेटल भी जलने पर ऑक्साइड्स बनाते हैं।
 
लेकिन जिस बांस की लकड़ी को जलाना शास्त्रों में वर्जित है यहां तक कि चिता मे भी नही जला सकते, उस बांस की लकड़ी को हमलोग रोज़ अगरबत्ती में जलाते हैं।

 अगरबत्ती के जलने से उतपन्न हुई सुगन्ध के प्रसार के लिए फेथलेट नाम के विशिष्ट केमिकल का प्रयोग किया जाता है। यह एक फेथलिक एसिड का ईस्टर होता है जो कि श्वांस के साथ शरीर में प्रवेश करता है, इस प्रकार अगरबत्ती की तथाकथित सुगन्ध न्यूरोटॉक्सिक एवम हेप्टोटोक्सिक को भी स्वांस के साथ शरीर मे पहुंचाती है।

इसकी लेश मात्र उपस्थिति केन्सर अथवा मष्तिष्क आघात का कारण बन सकती है। हेप्टो टॉक्सिक की थोड़ी सी मात्रा लीवर को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है।

शास्त्रो में पूजन विधान में कही भी अगरबत्ती का उल्लेख नही मिलता सब जगह धूप ही लिखा है, हर स्थान पर धूप,दीप,नैवेद्य का ही वर्णन है।

अगरबत्ती का प्रयोग भारतवर्ष में इस्लाम के आगमन के साथ ही शुरू हुआ है।  
मुस्लिम लोग अगरबत्ती मज़ारों में जलाते है, हम हमेशा अंधानुकरण ही करते है, जब कि हमारे धर्म की हर एक बातें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार मानवमात्र के कल्याण के लिए ही बनी है।

अतः कृपया अगरबत्ती की जगह धूप  का ही उपयोग करें।

Friday

मुंसी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता, जिसके एक-एक शब्द को बार-बार पढ़ने को मन करता है

मुंसी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता, जिसके एक-एक शब्द को बार-बार पढ़ने को मन करता है

_ख्वाहिश नहीं मुझे_
_मशहूर होने की,"_

        _आप मुझे पहचानते हो_
        _बस इतना ही काफी है।_


_अच्छे ने अच्छा और_
_बुरे ने बुरा जाना मुझे,_

        _जिसकी जितनी जरूरत थी_
        _उसने उतना ही पहचाना मुझे!_


_जिन्दगी का फलसफा भी_
_कितना अजीब है,_

        _शामें कटती नहीं और_
        _साल गुजरते चले जा रहे हैं!_


_एक अजीब सी_
_'दौड़' है ये जिन्दगी,_

        _जीत जाओ तो कई_
        _अपने पीछे छूट जाते हैं और_

_हार जाओ तो_
_अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं!_


_बैठ जाता हूँ_
_मिट्टी पे अक्सर,_

        _मुझे अपनी_
        _औकात अच्छी लगती है।_

_मैंने समंदर से_
_सीखा है जीने का सलीका,_

        _चुपचाप से बहना और_
        _अपनी मौज में रहना।_


_ऐसा नहीं कि मुझमें_
_कोई ऐब नहीं है,_

        _पर सच कहता हूँ_
        _मुझमें कोई फरेब नहीं है।_


_जल जाते हैं मेरे अंदाज से_
_मेरे दुश्मन,_

              _एक मुद्दत से मैंने_
       _न तो मोहब्बत बदली_ 
      _और न ही दोस्त बदले हैं।_


_एक घड़ी खरीदकर_
_हाथ में क्या बाँध ली,_

        _वक्त पीछे ही_
        _पड़ गया मेरे!_

_सोचा था घर बनाकर_
_बैठूँगा सुकून से,_

        _पर घर की जरूरतों ने_
        _मुसाफिर बना डाला मुझे!_


_सुकून की बात मत कर_
_ऐ गालिब,_

        _बचपन वाला इतवार_
        _अब नहीं आता!_

_जीवन की भागदौड़ में_
_क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_

        _हँसती-खेलती जिन्दगी भी_
        _आम हो जाती है!_


_एक सबेरा था_
_जब हँसकर उठते थे हम,_

        _और आज कई बार बिना मुस्कुराए_
        _ही शाम हो जाती है!_


_कितने दूर निकल गए_
_रिश्तों को निभाते-निभाते,_

        _खुद को खो दिया हमने_
        _अपनों को पाते-पाते।_


_लोग कहते हैं_
_हम मुस्कुराते बहुत हैं,_

        _और हम थक गए_
        _दर्द छुपाते-छुपाते!_


_खुश हूँ और सबको_
_खुश रखता हूँ,_

        _लापरवाह हूँ ख़ुद के लिए_
        _मगर सबकी परवाह करता हूँ।_

_मालूम है_
_कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_

        _कुछ अनमोल लोगों से_
        _रिश्ते रखता हूँ।_

मैनें तीस दिन काम किया और Tax दिया, कैसे? और मुझे क्या मिला? - पढ़िए और दूसरों को शेयर करें

मैनें तीस दिन काम किया
_
तनख्वाह ली - टैक्स दिया
मोबाइल खरीदा - टैक्स दिया--'
रिचार्ज किया - टैक्स दिया
डेटा लिया - टैक्स दिया
बिजली ली - टैक्स दिया
घर लिया - टैक्स दिया
TV फ्रीज़ आदि लिये - टैक्स दिया
कार ली - टैक्स दिया
पेट्रोल लिया - टैक्स दिया
सर्विस करवाई - टैक्स दिया
रोड पर चला - टैक्स दिया
टोल पर फिर - टैक्स दिया
लाइसेंस बनाया - टैक्स दिया
गलती की तो - टैक्स दिया
रेस्तरां मे खाया - टैक्स दिया
पार्किंग का - टैक्स दिया
पानी लिया - टैक्स दिया
राशन खरीदा - टैक्स दिया
कपड़े खरीदे - टैक्स दिया
जूते खरीदे - टैक्स दिया
कितबें ली - टैक्स दिया
टॉयलेट गया - टैक्स दिया
दवाई ली तो - टैक्स दिया
गैस ली - टैक्स दिया
सैकड़ों और चीजें ली ओर - टैक्स दिया, कहीं फ़ीस दी, कहीं बिल, कहीं ब्याज दिया, कहीं जुर्माने के नाम पर तो कहीं रिश्वत के नाम पर पैसा देने पड़े, ये सब ड्रामे के बाद गलती से सेविंग मे बचा तो फिर टैक्स दिया----
सारी उम्र काम करने के बाद कोई सोशल सेक्युरिटी नहीं, कोई पेंशन नही, कोई मेडिकल सुविधा नहीं, बच्चों के लिये अच्छे स्कूल नहीं, पब्लिक ट्रांस्पोर्ट नहीं, सड़कें खराब, स्ट्रीट लाईट खराब, हवा खराब, पानी खराब, फल सब्जी जहरीली, हॉस्पिटल महंगे, हर साल महंगाई की मार, आकस्मिक खर्चे व् आपदाएं , उसके बाद हर जगह लाइनें।।।।
सारा पैसा गया कहाँ????
करप्शन में , 
इलेक्शन में ,
अमीरों की सब्सिड़ी में ,
माल्या जैसो के भागने में
अमीरों के फर्जी दिवालिया होने में ,
स्विस बैंकों में ,
नेताओं के बंगले और कारों मे,    
और हमें झण्डू बाम बनाने मे।
अब किस को बोलूं कौन चोर है???
आखिर कब तक हमारे देशवासी यूंही घिसटती जिन्दगी जीते रहेंगे?????
-------------------------
कृपया इसे हरेक नागरिक को भेजें.
इतना लगान तो अंग्रेज भी नहीं लेते थे।

कोरोना काल में ससुराल यात्रा - एक सुन्दर कविता

कोरोना काल में जब पहुंच गया ससुराल !
बहुत ही अजीब सा था वहां का हाल !!
घर की घंटी बजाते ही सास दौड़ी आई !
देख जमाई को आज, मजबूरी मे मुसकाई !!
बोली थोड़ी देर गेट पर आप ठहर जाओ !
वाश वेशन पर सैनिटाइजर से हाथ धो आओ !!
पढे लिखे हो चेहरे पर मास्क नहीं लगाया ?
घर पर ही रहना था किसी ने नहीं समझाया ??
खैर आ ही गए हो तो दरवाजे पर जूते दो उतार !
पैर धोकर आ जाओ चाय रखी है तैयार !!
मन मे उठा क्रोध पर कुछ कह नहीं पाया !
लगा जैसे जमाई नही, कोई राक्षस ससुराल आया !!
इज्जत तो सारी आज कोरोना ने हर ली !
बाकी की कसर सासू माँ ने पूरी कर ली !!
फिर बेआबरू हो कदम साली की ओर बढाया !
वहां से भी नकारात्मक सा उत्तर आया !!
वो बोली सामाजिक दूरी को समझ नहीं पाये ?
हमारे इतनी पास क्यूँ जीजाजी चले आऐ ??
दूर से ही करती हूँ आज आपको नमस्ते !
छोटे साले ने भी दूर से हाथ हिलाया, हंसते हंसते !! 
फिर ससुर जी की मधुर आवाज दी सुनाई !
कवारंटाइन करना रे, बाहर से आया है जमाई  !!
चाय हाथ में थी, पर नहीं जा रही थी गटकी !
चाय खत्म होते ही, लगाना चाह रहा था घुडकी !!
जो काम सरकार लोकडाउन मे नहीं कर पाई !
ससुराल वालों ने एक ही दिन में थी समझाई!
विनती करता हूं तुमसे इन हालात में ससुराल मत चले जाना मेरे भाई!🤔🤔🤔🤣🤣🤣 जन हीत में जारी ऐसी स्थिति में नहीं करे कही भी आना जाना

💐सुरक सुरक💐 - शिसक सिशक

भागीरथी के बहाव को तु सुन रहा  सुरक सुरक💐
जानबूझकर मौन होकर तु देख रहा सुरक सुरक 💐

जन्म भुमि भी पहाड बनकर
रो रही थी सिशक शिसक💐
फिर भी तुझै दया न आई
देख रहा सुरक सुरक💐

माधोसिंह तीलु कुफु कि भुमि तूम देख रहे थे सुरक सुरक💐
फिर भी तुझे दया न आई
मोन बनकर देख रहा सुरक सुरक💐

विधाता कि नगरी कैसी विपदा मे आई💐
पहाड़ पुत्रो सच मे उन दुष्टो को शर्म नही आई💐

श्री देव सुमन तेरा हिमालय देख रहा सुरक सुरक💐
वह हिमालय भी विरह ब्यथा मै रो रहा सुरक सुरक💐

सावन के उगे फल फुलो से लदे पेड देख रहे थे सुरक सुरक💐
भुख तीस तेरी मिटाने मे हम भी विरह मे रो रहे थे शिशक शिशक💐

अन्न भुसा पिसा का़ंच मोन होकर दे रहे थे सुरक सुरक💐
वेशर्मी कि हदे पार कर वै
कर रहे थे खुसर फुसर💐

 युगो युगो से आज तक देव सुमन जन जन रो रहा शिशक शिशक
युगो युगो तक   देव सुमन सब जन मन बोल रहा नमन नमन 

25 जुलाई की वह सावन तिथी वीत रही थी  सुरक सुरक 💐
सावन कि  वह चांदनी रात्रि भी रो रहि थी शिशक शिशक💐
76 वे बलिदान दिवस पर श्रीदेव सुमन जी को शत शत नमन
आपणी या स्वरचित कविता कनी लगी अवश्य बतान👏👏
💐धुल की श्रद्धांजलि💐

Saturday

बावन गढ़ का देश गढ़वाल उत्तराखंड - कृपया आर्टिकल पूरा पढ़ें

कृपया आर्टिकल पूरा पढ़ें  

बावन गढ़ का देश गढ़वाल

गढवाल को कभी 52 गढ़ों का देश कहा जाता था। असल में तब गढ़वाल में 52 राजाओं का आधिपत्य था। उनके अलग अलग राज्य थे और वे स्वतंत्र थे। इन 52 गढ़ों के अलावा भी कुछ छोटे छोटे गढ़ थे जो सरदार या थोकदारों (तत्कालीन पदवी) के अधीन थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इनमें से कुछ का जिक्र किया था। ह्वेनसांग छठी शताब्दी में भारत में आया था। इन राजाओं के बीच आपस में लड़ाई में चलती रहती थी। माना जाता है कि नौवीं शताब्दी लगभग 250 वर्षों तक इन गढ़ों की स्थिति बनी रही लेकिन बाद में इनके बीच आपसी लड़ाई का पवांर वंश के राजाओं ने लाभ उठाया और 15वीं सदी तक इन गढ़ों के राजा परास्त होकर पवांर वंश के अधीन हो गये। इसके लिये पवांर वंश के राजा अजयपाल सिंह जिम्मेदार थे जिन्होंने तमाम राजाओं को परास्त करके गढ़वाल का नक्शा एक कर दिया था। 
      गढ़वाल में वैसे आज भी इन गढ़ों का शान से जिक्र होता और संबंधित क्षेत्र के लोगों को उस गढ़ से जोड़ा जाता है। मैं बचपन से इन गढ़ों के आधार पर लोगों की पहचान सुनता आ रहा हूं। गढ़वाल के 52 गढ़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है …
पहला … नागपुर गढ़ : यह जौनपुर परगना में था। यहां नागदेवता का मंदिर है। यहां का अंतिम राजा भजनसिंह हुआ था।
दूसरा … कोल्ली गढ़ : यह बछवाण बिष्ट जाति के लोगों का गढ़ था।
तीसरा … रवाणगढ़ : यह बद्रीनाथ के मार्ग में पड़ता है और रवाणीजाति का होने के कारण इसका नाम रवाणगढ़ पड़ा।
चौथा … फल्याण गढ़ : यह फल्दकोट में था और फल्याण जाति के ब्राहमणों का गढ़ था। कहा जाता है कि यह गढ़ पहले किसी राजपूत जाति का था। उस जाति के शमशेर सिंह नामक व्यक्ति ने इसे ब्राह्मणों का दान कर दिया था।
पांचवां … वागर गढ़ : यह नागवंशी राणा जाति का गढ़ था। इतिहास के पन्नों पर झांकने पर पता चलता है कि एक बार घिरवाण खसिया जाति ने भी इस पर अधिकार जमाया था।
छठा … कुईली गढ़ : यह सजवाण जाति का गढ़ था जिसे जौरासी गढ़ भी कहते हैं।
सातवां … भरपूर गढ़ : यह भी सजवाण जाति का गढ़ था। यहां का अंतिम थोकदार यानि गढ़ का प्रमुख गोविंद सिंह सजवाण था।
आठवां … कुजणी गढ़ : सजवाण जाति से जुड़ा एक और गढ़ जहां का आखिरी थोकदार सुल्तान सिंह था।
नौवां … सिलगढ़ : यह भी सजवाण जाति का गढ़ था जिसका अंतिम राजा सवलसिंह था।
दसवां … मुंगरा गढ़ : रवाई स्थित यह गढ़ रावत जाति का था और यहां रौतेले रहते थे।
11वां … रैका गढ़ : यह रमोला जाति का गढ़ था।
12वां … मोल्या गढ़ : रमोली स्थित यह गढ़ भी रमोला जाति का था।
13वां … उपुगढ़ : उद्येपुर स्थित यह गढ़ चौहान जाति का था।
14वां … नालागढ़ : देहरादून जिले में था जिसे बाद में नालागढ़ी के नाम से जाना जाने लगा।
15वां … सांकरीगढ़ : रवाईं स्थित यह गढ़ राणा जाति का था।
16वां … रामी गढ़ : इसका संबंध शिमला से था और यह भी रावत जाति का गढ़ था।
17वां … बिराल्टा गढ़ : रावत जाति के इस गढ़ का अंतिम थोकदार भूपसिंह था। यह जौनपुर में था।
18वां … चांदपुर गढ़ : सूर्यवंशी राजा भानुप्रताप का यह गढ़ तैली चांदपुर में था। इस गढ़ को सबसे पहले पवांर वंश के राजा कनकपाल ने अपने अधिकार क्षेत्र में लिया था।
19वां … चौंडा गढ़ : चौंडाल जाति का यह गढ़ शीली चांदपुर में था।
20वां … तोप गढ़ : यह तोपाल जाति का था। इस वंश के तुलसिंह ने तोप बनायी थी और इसलिए इसे तोप गढ़ कहा जाने लगा था। तोपाल जाति का नाम भी इसी कारण पड़ा था।
21वां … राणी गढ़ : खासी जाति का यह गढ़ राणीगढ़ पट्टी में पड़ता था। इसकी स्थापना एक रानी ने की थी और इसलिए इसे राणी गढ़ कहा जाने लगा था।
22वां … श्रीगुरूगढ़ : सलाण स्थित यह गढ़ पडियार जाति का था। इन्हें अब परिहार कहा जाता है जो राजस्थान की प्रमुख जाति है। यहां का अंतिम राजा विनोद सिंह था।
23वां … बधाणगढ़ : बधाणी जाति का यह गढ़ पिंडर नदी के ऊपर स्थित था।
24वां … लोहबागढ़ : पहाड़ में नेगी सुनने में एक जाति लगती है लेकिन इसके कई रूप हैं। ऐसे ही लोहबाल नेगी जाति का संबंध लोहबागढ़ से था। इस गढ़ के दिलेवर सिंह और प्रमोद सिंह के बारे में कहा जाता था कि वे वीर और साहसी थे।
25वां … दशोलीगढ़ : दशोली स्थित इस गढ़ को मानवर नामक राजा ने प्रसिद्धि दिलायी थी।
26वां … कंडारागढ़ : कंडारी जाति का यह गढ़ उस समय के नागपुर परगने में थे। इस गढ़ का अंतिम राजा नरवीर सिंह था। वह पंवार राजा से पराजित हो गया था और हार के गम में मंदाकिनी नदी में डूब गया था।
27वां … धौनागढ़ : इडवालस्यू पट्टी में धौन्याल जाति का गढ़ था।
28वां … रतनगढ़ : कुंजणी में धमादा जाति का था। कुंजणी ब्रहमपुरी के ऊपर है।
29वां … एरासूगढ़ : यह गढ़ श्रीनगर के ऊपर था।
30वां … इडिया गढ़ : इडिया जाति का यह गढ़ रवाई बड़कोट में था। रूपचंद नाम के एक सरदार ने इस गढ़ को तहस नहस कर दिया था।
31वां … लंगूरगढ़ : लंगूरपट्टी स्थिति इस गढ़ में भैरों का प्रसिद्ध मंदिर है।
32वां … बाग गढ़ : नेगी जाति के बारे में पहले लिखा था। यह बागूणी नेगी जाति का गढ़ था जो गंगा सलाण में स्थित था। इस नेगी जाति को बागणी भी कहा जाता था।
33वां … गढ़कोट गढ़ : मल्ला ढांगू स्थित यह गढ़ बगड़वाल बिष्ट जाति का था। नेगी की तरह बिष्ट जाति के भी अलग अलग स्थानों के कारण भिन्न रूप हैं।
34वां … गड़तांग गढ़ : भोटिया जाति का यह गढ़ टकनौर में था लेकिन यह किस वंश का था इसकी जानकारी नहीं मिल पायी थी।
35वां … वनगढ़ गढ़ : अलकनंदा के दक्षिण में स्थित बनगढ़ में स्थित था यह गढ़।
36वां … भरदार गढ़ : यह वनगढ़ के करीब स्थित था।
37वां … चौंदकोट गढ़ : पौड़ी जिले के प्रसिद्ध गढ़ों में एक। यहां के लोगों को उनकी बुद्धिमत्ता और चतुराई के लिये जाना जाता था। चौंदकोट गढ़ के अवशेष चौबट्टाखाल के ऊपर पहाड़ी पर अब भी दिख जाएंगे।
38वां … नयाल गढ़ : कटुलस्यूं स्थित यह गढ़ नयाल जाति था जिसका अंतिम सरदार का नाम भग्गु था।
39वां … अजमीर गढ़ : यह पयाल जाति का था।
40वां … कांडा गढ़ : रावतस्यूं में था। रावत जाति का था।
41वां … सावलीगढ़ : यह सबली खाटली में था।
42वां … बदलपुर गढ़ : पौड़ी जिले के बदलपुर में था।
43वां … संगेलागढ़ : संगेला बिष्ट जाति का यह गढ़ यह नैल चामी में था।
44वां … गुजड़ूगढ़ : यह गुजड़ू परगने में था।
45वां … जौंटगढ़ : यह जौनपुर परगना में था।
46वां … देवलगढ़ : यह देवलगढ़ परगने में था। इसे देवलराजा ने बनाया था।
47वां … लोदगढ़ : यह लोदीजाति का था।
48वां … जौंलपुर गढ़
49वां … चम्पा गढ़
50वां … डोडराकांरा गढ़
51वां … भुवना गढ़
52वां … लोदन गढ़
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Wednesday

बंटवारा - एक शानदार फैसला - Must read

📌 *बंटवारा - एक शानदार फैसला*   

पिता -           अमर चंद
बड़ा पुत्र -       राजेश
मजला पुत्र -    सुरेश
छोटा पुत्र -      मुकेश

*राजेश -*
"पिताजी  ! पंचायत इकठ्ठी हो गई, अब बँटवारा कर दो।" 

*सरपंच -*
"जब साथ में निबाह न हो तो औलाद को अलग कर देना ही ठीक है, अब यह बताओ तुम किस बेटे के साथ रहोगे ?" 

(सरपंच ने अमरचंद जी से पूछा।)

*राजेश  -*
"अरे इसमें क्या पूछना, चार महीने पिताजी मेरे साथ रहेंगे और चार महीने मंझले के पास चार महीने छोटे के पास रहेंगे।"

*सरपंच*
" चलो तुम्हारा तो फैसला हो गया, अब करें जायदाद का बँटवारा !" 

*अमर चंद -*
(जो सिर झुकाये बैठा था, एकदम चिल्ला के बोला,) 
कैसा फैसला ? 
अब मैं करूंगा फैसला, इन तीनो  को घर से बाहर निकाल कर "
"चार महीने बारी बारी से आकर रहें मेरे पास ,और बाकी महीनों का अपना इंतजाम खुद करें ...."

*"जायदाद का मालिक मैं हूँ ये नहीं।"*

तीनो लड़कों और पंचायत का मुँह खुला का खुला रह गया, जैसे कोई नई बात हो गई हो.

👌 *इसे कहते हैं फैसला*

*फैसला औलाद को नहीं,*
*मां-बाप को करना चाहिए* 

🙏 🙏🙏🙏

Tuesday

पतंजलि योगपीठ का कोरोना दवा बनाने का दावा, कीमत मात्र 103 रूपए।

अश्वगंधा, गिलोय और तुलसी की मात्रा बताई डॉक्टर ने उसी के एक्टिव कंपाउंड को लेकर हमने यह कोरोनिल नाम की आयुर्वेदिक औषधि इस संसार को कोरोना मुक्ति के लिए एक उपहार के रूप में दी है।  अभी हम जो क्रिटिकल पेशंट्स है ऊपर भी ट्रायल करेंगे तो यह सेकंड लेवल का ट्रायल हो जायेगा और क्रम आगे बढ़ता रहेगा और हमने यह वायरल डिजीज के ऊपर पहला कार्य नहीं किया है, इससे पहले हम डेंगूनील भी बना चुके हैं और वह भी इंटरनेशनल जर्नल के अंदर प्रकाशित हो चुकी है। बैक्टीरियल डिजीज के ऊपर हम नियंत्रण कार्य कर रहे थे। आयुर्वेद में भी विरालोजी का अलग से डिपार्टमेंट है।* - स्वामी रामदेव जी

योग गुरु बाबा रामदेव ने आयुर्वेदिक दवा से कोरोना के इलाज का दावा किया है। इसके लिए कोरोनिल नाम से टैबलेट लॉन्च की है। रामदेव ने कहा कि कोरोनिल में गिलोय, तुलसी और अश्वगंधा हैं जो इम्युनिटी बढ़ाते हैं। यह दवा क्रॉनिक बीमारियों से भी बचाव करती है। इसे पतंजलि रिसर्च इंस्टीट्यूट और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (निम्स) यूनिवर्सिटी, जयपुर ने मिलकर तैयार कर किया है।

100 मरीजों पर क्लीनिकल कंट्रोल ट्रायल
रामदेव का दावा है कि कोरोनिल की क्लीनिकल केस स्टडी में 280 मरीजों को शामिल किया। फिर 100 मरीजों के ऊपर क्लीनिकल कंट्रोल ट्रायल की गई। 3 दिन के अंदर 69% मरीज पॉजिटिव से निगेटिव हो गए और 7 दिन के अंदर 100% रोगी ठीक हो गए। डेथ रेट 0% रहा।


600 रुपए में मिलेगी 3 दवाओं की कोरोना किट
रामदेव ने जो कोरोना किट लॉन्च की है, उसमें कोरोनिल के अलावा श्वासारि वटी और अणु तेल भी हैं। रामदेव का कहना है कि तीनों को साथ इस्तेमाल करने से कोरोना का संक्रमण खत्म हो सकता है और महामारी से बचाव भी संभव है। यह किट 600 रुपए में मिलेगी।


श्वासारि सर्दी-खांसी-जुकाम से एक साथ डील करती है
रामदेव ने कहा कि शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने पर श्वासारि देने से फायदा होता है। यह दवा सर्दी, खांसी, जुकाम को भी एक साथ डील करती है। यह मुलेठी, शहद, अदरक और तुलसी जैसी 16 जड़ी-बूटियों से बनी है। अणुतेल नाक में डालना होता है। ये भी कोरोना से बचाव करता है।

7 दिन में पतंजलि स्टोर में मिलने लगेगी किट
रामदेव ने कहा कि अगले सोमवार को ऑर्डर-मी ऐप लॉन्च करेंगे, जिससे देशभर के लोग घर बैठे दवा मंगवा सकेंगे। ऑर्डर की डिलीवरी 1-3 दिन में कर दी जाएगी। साथ ही अगले 7 दिन में दवा सभी पतंजलि स्टोर में भी मिलने लगेगी।

Source - www.bhaskar.com

यह मानना कि #चीन कभी गुलाम नहीं रहा, भारत में फैलाए गए झूठ का अनुसरण है

यह मानना कि #चीन कभी गुलाम नहीं रहा, भारत में फैलाए गए झूठ का अनुसरण है। चीन अनेक बार गुलाम रहा है

चीन शताब्दियों तक #मंगोलों का गुलाम रहा ।
शताब्दियों तक #तिब्बत का गुलाम रहा ।
कुछ समय #जापान का गुलाम रहा ।

चीन का वर्तमान रूप #रूस, #इंग्लैंड, #फ्रांस तथा #USA की कृपा से 1948 ईस्वी में संभव हुआ है। उसके पहले तक वह #प्रशांत_महासागर के पेटे में चिपका हुआ सा छोटा सा राज्य था।

यह बात बड़े विस्तार से अभिलेखों और प्रमाण सहित प्रोफ़ेसर कुसुमलता केडिया जी अपने लेखों में दिखा चुकी हैं और पुस्तक भी लिख रही हैं।

17 वीं से बीसवीं शताब्दी ईस्वी की अवधि में चीन के अलग-अलग हिस्सों में इंग्लैंड, फ्रांस, #पुर्तगाल और #हालैंड का कब्जा रहा।

#अफीम की खेती चीन में नहीं होती थी। केवल #भारत में ही होती थी। यहां से अफीम लेकर इंग्लैंड,हॉलैंड,पुर्तगाल, फ्रांस आदि गए और अफीम की बिक्री इस कदर बढ़ाई कि  पूरा चीन देश अफीमची कहलाने लगा और वहां के लोग निठल्ले और कमजोर हो गए।

दूसरे महायुद्ध में चीन द्वारा रूस  की सहायता करने के कारण रूस, इंग्लैंड, फ्रांस तथा अमेरिका ने चीन को आसपास के इलाकों पर कब्जा करने दिया और वहां #कम्युनिस्ट शासन भी इन शक्तियों की योजना और संकेत से ही संभव हुआ।

उसके बाद से #जवाहरलाल_नेहरू सहित अनेक लोगों ने चीन की सेवा का  बहुत काम किया। जवाहरलाल नेहरू ने तो भारत का बड़ा अंश चीन को समर्पित कर दिया।तिब्बत पर चीन का कब्जा होने दिया। तिब्बत से ऊपर का भारतीय हिस्सा चीन के कब्जे में जाने दिया।  

इस प्रकार चीन का यह राक्षसी  स्वरूप तो 100 वर्ष से कम की चीज है और अगले कुछ वर्षों में बिखरने वाला है।

इनके विषय में जानकारी प्राप्त किए बिना उसकी स्तुति करना उचित नहीं।
लेखक : श्री रामेश्वर मिश्र पंकज

#चीन से लोहा लेना है तो चीन और #भारत के संबंधों के #इतिहास को भी समझना होगा। आज जिसे चीन कहा जा रहा है, वस्तुतः वह सारा क्षेत्र चीन नहीं है। 

#तिब्बत, #सिक्यांग और #इनर_मंगोलिया चीन नहीं हैं। बहुत पहले से इन राज्यों के साथ  भारत के संबंध रहे हैं जो आगे भी रहने चाहिए।यह भी स्मरण  रखना चाहिए कि  ये राज्य हमेशा से भारत के जनपद रहे हैं या फिर सहयोगी रहे हैं। इसके अतिरिक्त जो वास्तविक चीन है, उससे भी भारत के जो संबंध रहे हैं। वह भी महाभारत काल में भारत का सहयोगी जनपद रहा है और बाद के काल में भी भारत उनके लिए पूजनीय तथा श्रद्धाकेंद्र रहा है। 

आज भी चीन की #जनता भारत के प्रति उस श्रद्धाभाव को पूरी तरह भूली नहीं है, परंतु चीन का वर्तमान शासन उसे नष्ट करने के प्रयास में अवश्य संलग्न है। यह भी ध्यान रखें  कि चीन का वर्तमान #साम्यवादी नेतृत्व चीन की अपनी परंपराओं को ही नष्ट कर रहा है। अत: हमें भारत-चीन के ऐतिहासिक संबंधों का ध्यान रखते हुए चीन की वर्तमान सत्ता को पराजित करके नष्ट करने का उपाय करना चाहिए, और वहाँ चीनी परंपराओं की रक्षक सत्ता स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए। जैसे #मगध को स्वाधीन कराने के लिए #जरासंध का वध करना पड़ा था। इसमें ही चीन का भी कल्याण है, भारत का भी कल्याण है और संपूर्ण #विश्व का भी #कल्याण है। 

जानें चीन का सच 

हमें यह समझने की आवश्यकता है कि चीन सामान्य पड़ोसी देश नहीं है, वह एक आक्रामक पड़ोसी है। वह लगातार भारत के अनेक भूभागों पर दावा ठोकता रहा है और उसने वर्ष 1962 में आक्रमण करके भारत के एक विशाल भूभाग पर कब्जा भी कर रखा है। पाकिस्तान ने भी उसे भारत से कब्जाए गए प्रदेश में से एक भाग सौंप रखा है। अभी भी अरुणाचल प्रदेश पर चीन ने दावा ठोंकना बंद नहीं किया है। अभी हाल तक चीन अपने यहां नक्शे में अरुणाचल प्रदेश को चीन में ही दिखाता रहा है। ऐसे में कोई भी रणनीति बनाने से पहले हमें चीन के इतिहास और वर्तमान दोनों को ही ठीक से ध्यान में रखना होगा। भारत द्वारा मित्राता के निरंतर प्रयासों के बाद भी आखिर क्यों चीन लगातार भारत के साथ संघर्ष की स्थिति बनाए हुए है? इस प्रश्न को समझने के लिए हमें चीन के इतिहास को ठीक से खंगालना होगा। तभी हम उसकी इस मनोवृत्ति की पृष्ठभूमि को समझ पाएंगे और उसका निराकरण भी कर पाएंगे।

चीन के मिथक
सबसे पहले हमें चीन के बारे में कुछ मिथकों को सुधार लेना चाहिए। वर्तमान चीन का क्षेत्राफल भारत से लगभग तीन गुणा है। परंतु चीन की जनसंख्या भारत से थोड़ी सी ही अधिक है। समझने की बात यह है कि चीन आज जितना बड़ा हमें दिखता है, वह वास्तव में उतना बड़ा है नहीं। चीन का वास्तविक प्रदेश भारत जितना ही है। यदि हम इतिहास में थोड़ा और पीछे जाएंगे तो चीन भारत जितना भी नहीं रहा है। बारहवीं शताब्दी से पहले तक उसका वास्तविक क्षेत्राफल भारत से काफी छोटा रहा है। इसे हम विभिन्न शताब्दियों में चीन के नक्शे से समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए आभ्यंतर मंगोलिया, तिब्बत, शिन ज्याङ् और मांचूरिया कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहे।
चीन का मूल प्रदेश हान प्रदेश है। इसका क्षेत्राफल भारत के बराबर है। हान जाति ही मूल चीनी जाति है। हानों की संस्कृति ही मूल चीनी संस्कृति है। और हानों का प्रदेश काफी सीमित रहा है। इन पर तुर्क, मंगोल और मांचू जातियों ने शताब्दियों तक राज किया। परंतु जैसे ही इनके राज्य समाप्त हुए, चीन ने इनके प्रदेशों को हड़प लिया। परिणामस्वरूप आज चीन में तुर्क, मंगोल और मांचू प्रदेश भी शामिल है। यही कारण भी है कि चीन में इन सभी क्षेत्रों में खासकर शिन ज्याङ् और तिब्बत में चीनविरोधी प्रदर्शन हमेशा चलते रहते हैं जो कभी-कभी हिंसक रूप भी ले लेते हैं। मंगोलिया के अलावे शेष प्रदेशों के नाम चीन की कम्यूनिस्ट सरकार ने बदल दिए हैं। संभवतः वे उन क्षेत्रों की जनता को अपना इतिहास भुलवा देना चाहते होंगे। तुर्किस्तान का नाम शिन ज्याङ् रखा है जिसका अर्थ होता है नया प्रदेश। मांचू प्रदेश को मंचु कुओ के पुराने नाम से पुकारने की बजाय तीन प्रदेशों में बांट कर ल्याओ निङ्, कीरिन और हाइ लुङ् ज्याङ् नाम दिया गया है। तीनों को मिला कर उत्तर पूर्वी प्रदेश कहा जाता है। इसी प्रकार चीन ने तिब्बत को भी तीन भागों में बांट दिया है। तिब्बत, छाम्दो और चिङ् हाइ। इस प्रकार मूलतः हान और वर्तमान कम्यूनिस्ट चीन ने इन सभी क्षेत्रों को अपने रंग में रंगने की भरपूर कोशिशें की हैं।
बहरहाल, चीन देश का उल्लेख भारत में पुराणों के अलावा कौटिलीय अर्थशास्त्रा में भी पाया जाता है। चाणक्य ने चीन से रेशम का व्यापार किये जाने की चर्चा की है। चीन का नाम भी वहां का अपना नहीं है। चीन शब्द संस्कृत भाषा का है चीनी भाषा का नहीं। चीन का वहां की भाषा में नाम है झोंगुओ जिसका अर्थ होता है मध्य प्रदेश। सीधी-सी बात है कि दुनिया चीन को भारतीय नाम से ही जानती और पुकारती है और वे स्वयं भी अपनी भाषा के नाम की बजाय भारतीय भाषा के नाम को ही स्वीकारते हैं। इससे प्रमाणित होता है कि चीन भी कभी भारत का ही एक प्रदेश रहा होगा। महाभारत में एक स्थान पर संजय धृतराष्ट्र को उनके विशाल साम्राज्य का स्मरण दिलाते हैं, तो उसमें चीनदेश का भी नाम लेते हैं। इससे प्रतीत होता है कि कम से कम महाभारत के काल में तो चीन भारत का ही एक प्रदेश रहा होगा। यदि वह भारत का प्रदेश न भी रहा हो तो भी इतना तो इससे साफ हो जाता है कि चीन को भारत के द्वारा ही दुनिया ने जाना और समझा था। इसीलिए उसका भारतीय नाम ही प्रसिद्ध हुआ। यदि हम चीन के वर्तमान विभिन्न भूराजनीतिक तथा भूसांस्कृतिक क्षेत्रों की पड़ताल करें, यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाएगी।

तिब्बत और भारत
वर्तमान चीन का एक बड़ा भाग है तिब्बत। तिब्बत का उल्लेख भारतीय ग्रंथों में त्रिविष्टप के नाम से पाया जाता है। त्रिविष्टप से ही तिब्बत शब्द बना है। तिब्बत और भारत के सांस्कृतिक संबंधों को तो बड़ी आसानी से पहचाना जा सकता है। वर्ष 1951 से पहले तक तिब्बत एक अलग राज्य था जो सांस्कृतिक रूप से पूरी तरह भारत का अंग था। तिब्बत के निवासी भारतीय मूल के बौद्ध मत को मानते रहें हैं। तिब्बती भाषा में संस्कृत और पाली के बड़ी संख्या में अनुवादित ग्रंथ पाए जाते हैं जिनमें से कई तो अभी मूल रूप में अप्राप्य हो चुके हैं। तिब्बत वर्ष 1950 तक चीन का हिस्सा नहीं रहा है और यदि भारतीय नेताओं ने थोड़ी समझदारी दिखाई होती तो आज भी वह चीन का हिस्सा नहीं होता। इतिहास देखें तो भी मंगोलों के शासन के अलावा तिब्बत कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा। दुखद बात यह है कि जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया तो भारत की तत्कालीन सरकार ने तिब्बत का सहयोग नहीं किया। आज भी तिब्बत की निर्वासित सरकार का केंद्र भारत में ही है।
शिन ज्याङ् और खोतान
तिब्बत के अलावा वर्तमान चीन का एक बड़ा भूभाग है शिन ज्याङ्। यह वास्तव में तुर्किस्तान है जिसे चीनी तुर्किस्तान भी कहा जाता है। शिन ज्याङ् भी एक भारतीय राज्य रहा है। यहां हजार वर्ष लंबे बौद्ध राज्य के होने के पुरातात्विक प्रमाण बड़ी संख्या में पाए गए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से यह पूरा प्रदेश खोतान कहा जाता था। तिब्बती और भारतीय स्रोतों से ज्ञात होता है कि खोतान आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले तक एक वीरान प्रदेश था। एक वर्णन के अनुसार मौर्य शासकों के काल में अशोक ने हिमालयी क्षेत्रों में बसे लोगों से नाराज होकर उन्हें इधर भेज दिया था। उन्हीं भारतीय लोगों, जिनकी संख्या लगभग 7000 बताई जाती है, ने खोतान को बसाया। उसके कुछ समय पश्चात् चीन से लोगों का एक समूह भी खोतान के पूर्वी इलाके में आकर बस गया। कालांतर में खोतान पर प्रभुत्व के लिए दोनों गुटों में संघर्ष हुआ और बाद में दोनों ने मिल कर शासन करना स्वीकार किया। परंतु खोतान पर सांस्कृतिक रूप से भारतीय अधिक प्रभावी रहे। इसलिए वहां की लिपि, साहित्य और संस्कृति सभी भारतीय ही बनी रही। केवल राजनीतिक प्रभुत्व चीन के साथ साझा करना पड़ा। यही कारण है कि खोतान में पुरातात्विक खुदाई में बड़ी संख्या में भारतीय संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
खोतान के संबंध में अनेक कथाएं भारतीय और तिब्बती संदर्भों में मिलती हैं। उनमें काफी साम्यता भी है और कुछ भेद भी। इन कथाओं के आधार पर चंद्रगुप्त वेदालंकार लिखते हैं, “भगवान् बुद्ध के निर्वाण पद को प्राप्त करने के चार सौ वर्ष उपरान्त और धर्माशोक की मृत्यु के 165 वर्ष बाद 53 ई. पू. खोतान के राजा विजयसम्भव के शासनकाल के पांचवें वर्ष अर्हत वैरोचन ने पहले-पहले खोतान में बौद्धधर्म का प्रचार किया। इस समय भारत में मौर्यों का शासन समाप्त हो चुका था। मौर्यों के बाद कण्व आये। कण्व राजा भूमिमित्रा को शासन करते हुए जब 10 वर्ष हो चुके थे जब कश्मीर से अर्हत वैरोचन नामक एक भिक्षु खोतान गया। इसने राजा को बौद्धधर्म की दीक्षा दी। ’ली’ भाषा और ’ली’ लिपि का प्रचार किया।“
विभिन्न तिब्बती और भारतीय वर्णनों के अनुसार निम्न बातें सामने आती हैं-
(क) अशोक से बहुत वर्ष पूर्व कुछ ऋषि (धर्मप्रचारक) खोतान गये थे। परन्तु वहां के निवासियों ने उनका स्वागत न कर अपमान किया, जिससे उन्हें वापिस लौटना पड़ा।
(ख) किन्हीं दैवीय कारणों से खोतान में भयंकर जल-विप्लव हुआ और वहां की जन-संख्या बिलकुल नष्ट हो गई।
(ग) पानी सूखने पर अशोक का मंत्राी यश और राजकुमार कुस्तन स्थान ढूंढ़ते हुए खोतान पहुंचे। देश को जनशून्य देखकर और स्थान की सुन्दरता से मुग्ध होकर दोनों ने उसे बसा लिया।
(घ) इन्हीं कथानकों से एक परिणाम और निकलता है और वह यह है कि खोतान एक भारतीय उपनिवेश था। जिन लोगों ने उसे बसाया वे भारतीय थे। उनके देवता वैश्रवण और श्री महादेवी थे। उनके मन्दिरों की मूर्तियां भी इन्ही देवताओं की थीं।

शिन ज्याङ् में भारतीय धर्म
अर्हत वैरोचन कश्मीर से खोतान गया। वहां जाकर उसने बौद्धधर्म का प्रचार किया। राजा उससे प्रभावित होकर बुद्ध का भक्त बन गया और कुछ समय पश्चात् उसने एक विहार बनवाया जो खोतान का सर्वप्रथम बौद्धविहार था। खोतान के बारे में चीनी यात्राी फाह्यान ने जो वर्णन किया है, वह भी भारतीय प्रभावों की पुष्टि करता है। 404 ई. में फाह्यान लिखता है, “देश बहुत समृद्ध है। लोग खूब सम्पन्न हैं। जनसंख्या बढ़ रही है। यहां के सब निवासी बौद्ध है और मिल कर बुद्ध की पूजा करते हैं। प्रत्येक घर के सामने एक स्तूप है। छोटे-से छोटे स्तूप की ऊंचाई पच्चीस फीट है। संघारामों में यात्रियों का खूब स्वागत किया जाता है। राज्य में बहुत से भिक्षु निवास करते हैं। इनमें अधिकांश महायान सम्प्रदाय के हैं। अकेले गोमति विहार में ही महायान सम्प्रदाय के तीन सहस्त्रा भिक्षु निवास करते हैं, तथा घण्टा बजने पर भोजन करने के लिए भोजनालय में प्रविष्ट होते हैं और चुपचाप अपने स्थान पर बैठ जाते है। भोजन करते हुए ये परस्पर बात-चीत नहीं करते और न बांटने वाले के साथ ही बोलते हैं। प्रत्युत हाथ से ही ’हां’ और ’न’ का इशारा कर देते हैं।”
इसी प्रकार एक और चीनी यात्राी सुड्.-युन् 519 ई. में खोतान पहुंचा। वह लिखता है, ’’इस देश का राजा सिर पर मुर्गे की आकृति का मुकुट धारण करता है। उत्सवों के समय राजा के पीछे तलवार और धनुष उठाने वालों के अतिरिक्त विविध वाद्य-उपकरणों को बजाने वाले भी चलते हैं। यहां की स्त्रिायों पुरुषों की भांति घोड़ों पर चढ़ती हैं। मुर्दे जलाये जाते हैं।“
प्राचीन खोतान नगर के बारे में चंद्रगुप्त वेदालंकार ने लिखा है, “युरङ्काश नदी के पश्चिमीय किनारे पर योतकन नामक नगर विद्यमान है। यहां पर प्राचीन समय के भग्नावशेष प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हुए हैं। गम्भीर अन्वेषण से ज्ञात हुआ है कि इसी स्थान पर खोतान देश की प्राचीन राजधानी खोतान नगर विद्यमान था। यहां से मध्यकालीन भारतीय राजाओं के आठ सिक्के उपलब्ध हुए हैं। इसमें से छः काश्मीर के राजाओं के है और शेष दो सिक्के काबुल के हिन्दु राजा ’’सामन्तदेव’’ के हैं। यहां से मिट्टी का बना हुआ एक छोटा-सा बर्तन मिला है। इसके सिर पर एक बन्दर बैठा हुआ है जो सितार बजा रहा हैं। एक अन्य बर्तन के दोनों ओर दो स्त्रिायों की मूर्तियां बनी हुई हैं। ये गन्धर्वियों की मूर्तियां है। मिट्टी के बने हुए वैश्रवण के सिर मिले हैं। घन्टे की आकृति की एक मोहर भी प्राप्त हुई है। एक अन्य मोहर पर गौ का चित्रा बना हुआ है। पीतल की बनी एक बुद्ध मूर्ति भी मिली है। इसका दायां हाथ ऊपर की ओर है और अंगुलियां ऊपर उठाई हुई हैं। एक दीवार पर ’मार’ और उसकी स्त्राी द्वारा भगवान् बुद्ध को प्रलोभित करने का दृश्य दिखाया गया है। एक आले में बोधिसत्व की मूर्ति विराजमान हैं। इसका दाहिना स्कंध तथा छाती नंगी है। देह पर चीवर पहरा हुआ है। दायां हाथ पृथ्वी की ओर झुका हुआ है। समीप ही तीन स्त्रिायों की मूर्तियां हैं। इनमें से एक मूर्ति नागिन की है। सामने ’मार’ का भयावह चित्रा है। इसने हाथ में वज्र पकड़ हुआ है और मुंह बुद्ध की ओर फेरा हुआ है।“
ये वर्णन साबित करते हैं कि प्राचीन खोतान और वर्तमान शिन ज्याङ् एक समय में भारतीय प्रदेश ही रहे हैं। वहां भारतीय परंपराओं के अनुसार ही लोग जीवन जीते रहे हैं। कालांतर में यहां इस्लाम का आगमन हुआ और यहां के लोगों ने पराजित होने पर इस्लाम स्वीकार कर लिया। परंतु इसके बाद भी यह स्वाधीन प्रदेश था। मंगोलों ने पहली बार इसे अपने साम्राज्य में शामिल किया।
मंगोलिया में भारतीय प्रभाव
चीन के उत्तर में स्थित मंगोलिया के भी भारत से काफी नजदीकी संबंध रहे हैं। प्रसिद्ध विद्वान तथा भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे आचार्य रघुवीर पचास के दशक में मंगोलिया की यात्रा पर गए थे। बीसवीं शताब्दी में भारत से मंगोलिया जाने वाले वे पहले आचार्य थे। 1956 में जब वे वहां गए तो वहां की जनता के लिए मानो एक युगप्रवर्तक घटना घटी हो। प्रधानमंत्राी से लेकर विद्वान, पत्राकार, जनता-जनार्दन का अपार स्नेह उन्हें मिला। जिस-जिस तम्बू में वे गए, माताओं ने अपने बच्चों को उनकी गोद में बिठा दिया, सब उनका आशीर्वाद पाने को आतुर थे।
उस समय उनके अनुसंधान का विषय था – मंगोलिया की भाषा, साहित्य, संस्कृति और धर्म। वह इतिहास जिसमें छठी शताब्दी के उन भारतीय आचार्यों का वर्णन है जो धर्म की ज्योति लिए मंगोल देश में गये, और 6000 संस्कृत ग्रन्थों का मंगोल भाषा में भाषान्तर किया, जिनके द्वारा निर्मित दास लाख मूर्तियां, सात सौ पचास विहारों में सुरक्षित थीं, जिनके द्वारा लिखी अथवा लिखवायी गयीं बत्तीस लाख पाण्डुलिपियां 1940 तक विहारों में सुरक्षित थीं, लाखों प्रभापट थे। वहां उन्होंने चंगेज खां के वंशजों के अति दिव्य मन्दिर देखे जो गणेशजी की मूर्तियों से सुशोभित थे।
यहां से आचार्य जी मंगोल भाषा में अनूदित अनेक ग्रन्थ लाये जिनमें कालिदास का मेघदूत, पाणिनि का व्याकरण, अमरकोश, दण्डी का काव्यादर्श आदि सम्मिलित हैं। इनमें से एक, गिसन खां अर्थात् राजा कृष्ण की कथाओं का उनकी सुपुत्राी डॉ. सुषमा लोहिया ने अनुवाद किया है। वे भारतीयों को भारतीयता के गौरव की अनुभूति करवाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मंगोल-संस्कृत और संस्कृत-मंगोल कोश भी लिख डाले। उन्होंने मंगोल भाषा का व्याकरण भी लिखा ताकि भावी पीढ़ियां उसका अध्ययन कर सकें। वहां आलि-कालि-बीजहारम् नामक, संस्कृत पढ़ाने की एक पुस्तक आचार्य जी को उपलब्ध हुई। इसमें लाञ्छा और वर्तुल दो लिपियों का प्रयोग किया गया है। भारत में ये लिपियां खो चुकी हैं। मंगोलिया में बौद्ध भिक्षु संस्कृत की धारणियों को लिखने और पढ़ने के लिए इस पुस्तक का अध्ययन किया करते थे। इसमें संस्कृत अक्षरों का तिब्बती और मंगोल लिपियों में लिप्यन्तर कर उन्हीं भाषाओं में वर्णन प्रस्तुत किए गए हैं। और भी आश्चर्य की बात है कि इसकी छपाई चीन में हुई थी। यह पुस्तक मात्रा भारत के चीन, मंगोलिया और तिब्बत के साथ सांस्कृतिक सम्बंधों की गाथा ही नहीं सुनाती अपितु नेवारी, देवनागरी तथा बंगाली लिपियों का विकास जानने में भी सहायक है।
इस प्रकार मंगोलिया भी चीन की बजाय भारत के अधिक नजदीक रहा है, सांस्कृतिक ही नहीं, वरन् राजनीतिक रूप से भी। इनर मंगोलिया वास्तव में मंगोलिया का ही एक हिस्सा है और इसलिए वह भी चीनी होने की बाजय भारतीय संस्कृति के रंग में रंगा हुआ रहा है, बहुत कुछ आज भी है।
भारतीय प्रभाव
यही कारण है कि चीन आदि में भारत के राजनीतिक प्रभाव के सूत्रा भी प्राप्त होते हैं। समझने की बात यह है कि भारतीय राजाओं ने कभी भी अपने उपनिवेश बनाने का प्रयास नहीं किया है। वे हमेशा स्थानीय शासन को ही वरीयता देते रहे हैं। इतिहास में ऐसे सैंकड़ों उदाहरण मिलते हैं, जिसमें भारतीय राजा ने किसी अत्याचारी राजा को मारा, परंतु फिर वहीं के किसी व्यक्ति को वहां का शासक बना दिया। भारतीय राजाओं ने हमेशा केवल धर्म के शासन को सुनिश्चित किया न कि किसी व्यक्ति या राजवंश के शासन को। यही कारण है कि पूरी दुनिया में भारतीय शासकों ने धर्म का शासन स्थापित किया था और उसके कारण वे वहां अत्यंत लोकप्रिय भी हुए थे। इसलिए आज की औपनिवेशिक मानसिकता से यदि हम भारतीय राजनीतिक प्रभावों को तलाशने का प्रयास करेंगे तो संभवतः हमें कुछ भी हाथ नहीं लगेगा, परंतु यदि हम भारत की राजनीतिक परंपरा को ध्यान में रखेंगे तो हमें काफी कुछ प्राप्त हो सकता है। उदाहरण के लिए कण्व वंश के शासकों का शासन जब खोतान पर था तब चीन से राजनयिक विवाह संबंध भी होते रहे हैं। वर्ष 68 में भारत से एक विद्वत् मंडल चीन बुलाया गया। इसका वर्णन रेवरेंड जोसेफ एडकिन्स ने अपनी पुस्तक चाइनिज बुद्धीज्म में किया है। एडकिन्स ने इसकी तुलना अफ्रीका से पहली बार यूरोप पहुँचे पहली ईसाई मिशनरी के साथ हुए व्यवहार से की है। भारतीय धर्मप्रचारकों को जहां शासकीय सम्मान और स्वागत मिला था, ईसाई मिशनरियों को बंदी बना लिया गया था और सार्वजनिक रूप से जलील करते हुए उन्हें बाहर खदेड़ दिया गया था। इससे अफ्रीका-यूरोप के संबंधों और साथ ही भारत-चीन के राजनीतिक संबंधों की जानकारी मिलती है। सांस्कृतिक स्वागत भी तभी होते हैं जब राजनीतिक संबंध प्रगाढ़ होते हैं।
एडकिन्स के इस वर्णन का साक्ष्य अनेक तिब्बती ग्रंथों से भी मिलता है। चंद्रगुप्त वेदालंकार लिखते हैं, “अशोक द्वारा राजकीय सहायता मिलने से बौद्वधर्म भारत की प्राकृतिक सीमाओं को पार कर एशिया, योरुप और अफ्रीका तीनों महाद्वीपों में फैल गया। तदनन्तर कुशन राज कनिष्क ने बौद्वधर्म के प्रचारार्थ भारी प्रयत्न किया। इसी के समय पेशावर में चतुर्थ बौद्धसभा बुलाई गई। जिस समय पश्चिम-भारत में कुशान राजा राज्य कर रहे थे उस समय तक चीन में बौद्धधर्म का प्रचार प्रारम्भ हो चुका था।”

चीन में बौद्ध धर्म
“चीनी पुस्तक ’को-वैन्-फिड्.-ची’ से ज्ञात होता है कि चीन के ’हान’ वंशीय राजा मिङ्ती ने 65 ई. में 18 व्यक्तियों का एक दूतमण्डल भारत भेजा जो लौटते हुए अपने साथ बहुत से बौद्ध ग्रन्थ तथा दो भिक्षु ले गया। इस प्रकार चीनी विवरण के अनुसार मिङ्ती के शासनकाल में ही चीन में प्रथम बार बौद्धधर्म प्रविष्ट हुआ। परन्तु प्रश्न पैदा होता है कि यह दूतमण्डल भेजा क्यों गया? इसका उत्तर चीनी पुस्तकें इस प्रकार देती है-’’ हान वंशीय राजा मिङ्ती ने अपने शासन के चौथे वर्ष स्वप्न में 12 1/2 फीट ऊंचे एक स्वर्णीय पुरुष को देखा। उसनके सिर से सूर्य की भांति तीव्र प्रकाश निकल रहा था। राजा की ओर आता हुआ वह दिव्य पुरुष महल में प्रविष्ट हुआ। स्वप्न से बहुत अधिक प्रभावित होकर राजा ने मंत्राी से इस स्वप्न का रहस्य पूछा। मंत्राी ने उत्तर दिया- आप जानते हैं कि भारतवर्ष में एक बहुत विद्वान् पुरुष रहता है जिसे बुद्ध कहा जाता है। यह पुरुष निश्चय से वही था। यह सुनकर राजा ने अपने सेनापति तथा 17 अन्य व्यक्तियों को महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं का पता लगाने के लिये भारत भेजा।” यह कहानी बताती है कि चीन पर भारत का प्रभाव बौद्धों के आविर्भाव के पहले से रहा है। भारत में हो रही सभी गतिविधियों की जानकारी चीन के लोगों को बखूबी है। इतना ही नहीं, वे उनसे इतने प्रभावित हैं कि उनके राजा को उसके सपने तक आते हैं।
वेदालंकार आगे लिखते हैं, “चीन में बौद्धधर्म के प्रवेश की यह कथा तद्देशीय 13 अन्य ग्रन्थों में भी पाई जाती है। बिल्कुल यही कथानक तिब्बती ग्रन्थ ’तब्था-शैल्ख्यी-मीलन्’ में भी इसी प्रकार संगृहीत है। इन सब ग्रन्थों के अनुसार चीन में बौद्धधर्म का सर्वप्रथम उपदेष्टा ’काश्यप् मातङ्ग’ था। मातङ्ग इसका नाम था और क्योंकि यह कश्यप गोत्रा में उत्पन्न हुआ था इसलिये यह काश्यप् मातङ्ग नाम से प्रसिद्ध था। यह मगध का रहने वाला था। जिस समय चीनी दूतमण्डल भारत आया तब यह गान्धार में था । दूतमण्डल की प्रेरणा पर यह चीन जाने को उद्यत हो गया। उस समय गान्धार से चीन जाने वाला मार्ग खोतान और गौबी के मरुस्थल में से होकर जाता था। मार्ग की सैकड़ों विपत्तियों को सहता हुआ कश्पय मातङ्ग चीन पहुंचा। चीन पहुंचने पर राजा ने इसके निवासार्थ ’लोयड्.’ नामक विहार बनवाया। मिङ्ती द्वारा भारतीय पण्डितों के प्रति पक्षपात दिखाने पर कन्फ्यूशस और ताऊ धर्म वालों ने बौद्धधर्म के विरुद्ध आवाज उठाई। इस पर तीनों धर्मां की परीक्षा की गई। इस परीक्षा में बौद्धधर्म सफल हुआ।”
“इस प्रकार चीन में बौद्धधर्म के जड़ पकड़ते ही भारतीय पण्डित इस ओर आकृष्ट हुए और बहुत बड़ी संख्या में चीन जाने लगे। प्रथम जत्थे में आर्यकाल, श्रमण सुविनय, स्थविर चिलुकाक्ष आदि के नमा उल्लेखनीय है। दूसरी शताब्दी के अन्य होने से पूर्व ही महाबल चीन गया। इसने लोयड्. विहार में रह कर संस्कृतग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। तीसरी शताब्दी में धर्मपाल चीन गया और अपने साथ कपिलवस्तु से एक संस्कृत ग्रन्थ भी ले गया। 207 ई. में इसका अनुवाद किया गया। तदुपरान्त ’महायान इत्युक्तिसूत्रा’ का अनुवाद हुआ। 222ई. में धर्मपाल चीन पहुंचा। इसने देखा कि चीनी लोग विनय के नियमों से सर्वथा अपरिचित हैं। ये नियम ’प्रातिमोक्ष सूत्रा’ में संगृहीत थे। धर्मपाल ने प्रातिमोक्ष का अनुवाद करना आरम्भ किया। 250 ई. में इसका पूर्णतया अनुवाद हो गया। विनय पिटक की यह प्रथम ही पुस्तक थी जो अनुदित की गई थी। 224 ई. में विघ्व और तुहयान, ये दो पण्डित चीन गये और अपने साथ ’धम्मपद’ सूत्रा ले गये। दोनों ने मिलकर इसका अनुवाद किया। तीसरी शताब्दी समाप्त होते होते कल्याणरन, कल्याण और गोरक्ष चीन पहुंचे। ये भी अनुवादकार्य में जुट गये। इस प्रकार तीसरी शताब्दी तक निरन्तर भारतीय पण्डितों का प्रवाह चीन की ओर प्रवृत्त रहा। इस बीच में 350 बौद्धधर्मग्रंथ चीनी भाषा में अनुदित किये जा चुके थे। जनता में बौद्धधर्म के प्रति पर्याप्त अनुराग पैदा हो गया था और बहुत से लोग बुद्ध, धर्म तथा संघ की शरण में आ चुके थे।”
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि आज से ढाई हजार वर्ष पहले तक चीन की भौगोलिक रचना काफी छोटी थी और महाभारत काल में चीन भारत के कुरूराज के साम्राज्य से जुड़ा भी रहा है। भारत के लोग मध्य, पश्चिम और उत्तरी एशिया के सभी क्षेत्रों में इसी प्रकार आया जाया करते थे, जैसे आज हम भारत के किसी एक राज्य से दूसरे राज्य में चले जाया करते हैं। इस पूरे क्षेत्रा में भारत की स्थिति राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से प्रेरक तथा नायक की थी। इस पूरे इलाके के लोग भारत को अपना श्रद्धा केंद्र मानते थे। चीन भी इसमें शामिल रहा है।
इन तथ्यों को ध्यान में रखें तो फिर चीन के साथ हम अपने संबंधों और भावी रणनीति पर विचार कर सकते हैं। चीन का वास्तविक क्षेत्रा भारत से काफी छोटा है और यदि हम उसका बढ़ा हुआ क्षेत्राफल स्वीकार कर लें तो भी वह भारत के बराबर ही ठहरता है। साथ ही यह भी समझने की बात है कि चीन का वह क्षेत्रा भारत से खासा दूर है। चीन को इस इतिहास की याद दिलाने की आवश्यकता है।
वर्तमान चीन के जो प्रदेश भारत की सीमा से लगते हैं, वे वास्तव में कम्यूनिस्ट साम्राज्यवादी चीन के अंग हैं। चूंकि कम्यूनिस्ट स्वभाव से विस्तारवादी होते हैं, इसलिए वर्तमान चीन की हम चाहे जितनी लल्लो-चप्पो कर लें, वह अपना विस्तारवादी रवैया नहीं छोड़ेगा। कम्यूनिस्ट चीन और पाकिस्तान की आपस में बनती भी इसी कारण से है कि ये दोनों ही भारत को अपना शिकार समझते हैं।
ऐसे में भारत के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह चीन के साथ प्राचीन सांस्कृतिक संबंधों को जीवित करने के प्रयास करे। जब भी चीन द्वारा भारतीय प्रदेशों की चर्चा की जाए, तब-तब तिब्बत, शिन ज्यांङ् और मंगोलिया के भारतीय इतिहास को सामने लाया जाना चाहिए। भारत को तो शिन ज्याङ् और तिब्बत के इतिहास को बौद्धिक विश्व पटल पर निरंतर उठाते ही रहना चाहिए। इसमें ध्यान रखने की बात यह है कि चीन की भांति भारत इन प्रदेशों पर अपनी सत्ता जमाने की बात न करे, बल्कि प्राचीन परंपरा के अनुसार इन्हें स्वाधीन राज्य बनाने की बात उठाए जिससे ये भारत के मित्रा राज्य बन कर रह सकें।
भारत को मंगोलिया से अपने सदियों पुराने सांस्कृतिक व राजनीतिक संबंधों को भी पुनर्जीवित करना चाहिए। आभ्यंतर मंगोलिया चीन का प्रदेश कभी नहीं रहा है, वह मंगोलिया का ही हिस्सा होना चाहिए, इस बात को भी उचित स्थानों पर सामने लाना चाहिए। इससे चीन की आक्रामकता पर लगाम तो लगेगी ही, भारत के सांस्कृतिक मित्रों की संख्या भी बढ़ेगी जो कालांतर में भारत के राजनीतिक मित्रा भी साबित होंगे।

संदर्भः
1. चाइनीज बुद्धिज्म, रेव. जोसेफ एडकिन्स, 1893
2. एनशिएंट खोतान, औरील स्टीन, 1907
2. वृहत्तर भारत, शिव कुमार अस्थाना
3. वृहत्तर भारत, चंद्रगुप्त वेदालंकार, 1935
4. वैदिक संपत्ति, पंडित रघुनंदन शर्मा, 1932
5. कौटिलीय अर्थशास्त्रा, उदयवीर शास्त्राी
6. आचार्य रघुवीर, शशिबाला
7- //www.ancient.eu/china/
8- www.wikipedia.com
✍🏻लेखक:- रवि शंकर, कार्यकारी संपादक, भरतीय धरोहर

Monday

योग,आसन,अध्यात्म एवं व्यायाम - About Yoga in Hindi

योग,आसन,अध्यात्म एवं व्यायाम
लेखक:- पवन त्रिपाठी

योग का वर्णन वेदों में, फिर उपनिषदों में और फिर गीता में मिलता है, लेकिन पतंजलि और गुरु गोरखनाथ ने योग के बिखरे हुए ज्ञान को व्यवस्थित रूप से लिपिबद्ध किया। योग हिन्दू धर्म के छह दर्शनों में से एक है। ये छह दर्शन हैं- 1.न्याय 2.वैशेषिक 3.मीमांसा 4.सांख्य 5.वेदांत और 6.योग। आओ जानते हैं योग के बारे में वह सब कुछ जो आप जानना चाहते हैं।

*योग के मुख्य अंग:- यम, नियम, अंग संचालन, आसन, क्रिया, बंध, मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इसके अलावा योग के प्रकार, योगाभ्यास की बाधाएं, योग का इतिहास, योग के प्रमुख ग्रंथ।

योग के प्रकार:- 1.राजयोग, 2.हठयोग, 3.लययोग, 4. ज्ञानयोग, 5.कर्मयोग और 6. भक्तियोग। इसके अलावा बहिरंग योग, नाद योग, मंत्र योग, तंत्र योग, कुंडलिनी योग, साधना योग, क्रिया योग, सहज योग, मुद्रायोग, और स्वरयोग आदि योग के अनेक आयामों की चर्चा की जाती है। लेकिन सभी उक्त छह में समाहित हैं।

1.पांच यम:- 1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय, 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह।

2.पांच नियम:- 1.शौच, 2.संतोष, 3.तप, 4.स्वाध्याय और 5.ईश्वर प्राणिधान।

3.अंग संचालन:- 1.शवासन, 2.मकरासन, 3.दंडासन और 4. नमस्कार मुद्रा में अंग संचालन किया जाता है जिसे सूक्ष्म व्यायाम कहते हैं। इसके अंतर्गत आंखें, कोहनी, घुटने, कमर, अंगुलियां, पंजे, मुंह आदि अंगों की एक्सरसाइज की जाती है।

4.प्रमुख बंध:- 1.महाबंध, 2.मूलबंध, 3.जालन्धरबंध और 4.उड्डियान।

5.प्रमुख आसन:- किसी भी आसन की शुरुआत लेटकर अर्थात शवासन (चित्त लेटकर) और मकरासन (औंधा लेटकर) में और बैठकर अर्थात दंडासन और वज्रासन में, खड़े होकर अर्थात सावधान मुद्रा या नमस्कार मुद्रा से होती है। यहां सभी तरह के आसन के नाम दिए गए हैं।

1.सूर्यनमस्कार, 2.आकर्णधनुष्टंकारासन, 3.उत्कटासन, 4.उत्तान कुक्कुटासन, 5.उत्तानपादासन, 6.उपधानासन, 7.ऊर्ध्वताड़ासन, 8.एकपाद ग्रीवासन, 9.कटि उत्तानासन

10.कन्धरासन, 11.कर्ण पीड़ासन, 12.कुक्कुटासन, 13.कुर्मासन, 14.कोणासन, 15.गरुड़ासन 16.गर्भासन, 17.गोमुखासन, 18.गोरक्षासन, 19.चक्रासन, 20.जानुशिरासन, 21.तोलांगुलासन 22.त्रिकोणासन, 23.दीर्घ नौकासन, 24.द्विचक्रिकासन, 25.द्विपादग्रीवासन, 26.ध्रुवासन 27.नटराजासन, 28.पक्ष्यासन, 29.पर्वतासन, 31.पशुविश्रामासन, 32.पादवृत्तासन 33.पादांगुष्टासन, 33.पादांगुष्ठनासास्पर्शासन, 35.पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, 36.पॄष्ठतानासन 37.प्रसृतहस्त वृश्चिकासन, 38.बकासन, 39.बध्दपद्मासन, 40.बालासन, 41.ब्रह्मचर्यासन 42.भूनमनासन, 43.मंडूकासन, 44.मर्कटासन, 45.मार्जारासन, 46.योगनिद्रा, 47.योगमुद्रासन, 48.वातायनासन, 49.वृक्षासन, 50.वृश्चिकासन, 51.शंखासन, 52.शशकासन

53.सिंहासन, 55.सिद्धासन, 56.सुप्त गर्भासन, 57.सेतुबंधासन, 58.स्कंधपादासन, 59.हस्तपादांगुष्ठासन, 60.भद्रासन, 61.शीर्षासन, 62.सूर्य नमस्कार, 63.कटिचक्रासन, 64.पादहस्तासन, 65.अर्धचन्द्रासन, 66.ताड़ासन, 67.पूर्णधनुरासन, 68.अर्धधनुरासन, 69.विपरीत नौकासन, 70.शलभासन, 71.भुजंगासन, 72.मकरासन, 73.पवन मुक्तासन, 74.नौकासन, 75.हलासन, 76.सर्वांगासन, 77.विपरीतकर्णी आसन, 78.शवासन, 79.मयूरासन, 80.ब्रह्म मुद्रा, 81.पश्चिमोत्तनासन, 82.उष्ट्रासन, 83.वक्रासन, 84.अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, 85.मत्स्यासन, 86.सुप्त-वज्रासन, 87.वज्रासन, 88.पद्मासन आदि।

6.जानिए प्राणायाम क्या है:-

प्राणायाम के पंचक:- 1.व्यान, 2.समान, 3.अपान, 4.उदान और 5.प्राण।

प्राणायाम के प्रकार:- 1.पूरक, 2.कुम्भक और 3.रेचक। इसे ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।

प्रमुख प्राणायाम:- 1.नाड़ीशोधन, 2.भ्रस्त्रिका, 3.उज्जाई, 4.भ्रामरी, 5.कपालभाती, 6.केवली, 7.कुंभक, 8.दीर्घ, 9.शीतकारी, 10.शीतली, 11.मूर्छा, 12.सूर्यभेदन, 13.चंद्रभेदन, 14.प्रणव, 15.अग्निसार, 16.उद्गीथ, 17.नासाग्र, 18.प्लावनी, 19.शितायु आदि।

अन्य प्राणायाम:- 1.अनुलोम-विलोम प्राणायाम, 2.अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम, 3.अग्नि प्रसारण प्राणायाम, 4.एकांड स्तम्भ प्राणायाम, 5.सीत्कारी प्राणायाम, 6.सर्वद्वारबद्व प्राणायाम, 7.सर्वांग स्तम्भ प्राणायाम, 8.सम्त व्याहृति प्राणायाम, 9.चतुर्मुखी प्राणायाम, 10.प्रच्छर्दन प्राणायाम, 11.चन्द्रभेदन प्राणायाम, 12.यन्त्रगमन प्राणायाम, 13.वामरेचन प्राणायाम,

14.दक्षिण रेचन प्राणायाम, 15.शक्ति प्रयोग प्राणायाम, 16.त्रिबन्धरेचक प्राणायाम, 17.कपाल भाति प्राणायाम, 18.हृदय स्तम्भ प्राणायाम, 19.मध्य रेचन प्राणायाम,

20.त्रिबन्ध कुम्भक प्राणायाम, 21.ऊर्ध्वमुख भस्त्रिका प्राणायाम, 22.मुखपूरक कुम्भक प्राणायाम, 23.वायुवीय कुम्भक प्राणायाम, 
24.वक्षस्थल रेचन प्राणायाम, 25.दीर्घ श्वास-प्रश्वास प्राणायाम, 26.प्राह्याभ्न्वर कुम्भक प्राणायाम, 27.षन्मुखी रेचन प्राणायाम 28.कण्ठ वातउदा पूरक प्राणायाम, 29.सुख प्रसारण पूरक कुम्भक प्राणायाम,

30.नाड़ी शोधन प्राणायाम व नाड़ी अवरोध प्राणायाम आदि।

7.योग क्रियाएं जानिएं:-

प्रमुख 13 क्रियाएं:- 1.नेती- सूत्र नेति, घॄत नेति, 2.धौति- वमन धौति, वस्त्र धौति, दण्ड धौति, 3.गजकरणी, 4.बस्ती- जल बस्ति, 5.कुंजर, 6.न्यौली, 7.त्राटक, 8.कपालभाति, 9.धौंकनी, 10.गणेश क्रिया, 11.बाधी, 12.लघु शंख प्रक्षालन और 13.शंख प्रक्षालयन।

8.मुद्राएं कई हैं:-

*6 आसन मुद्राएं:- 1.व्रक्त मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शोभवनी मुद्रा।

*पंच राजयोग मुद्राएं- 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्युनी मुद्रा।

*10 हस्त मुद्राएं:- उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: -1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथवि मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा, 10.अपान वायु मुद्रा।

*अन्य मुद्राएं : 1.सुरभी मुद्रा, 2.ब्रह्ममुद्रा, 3.अभयमुद्रा, 4.भूमि मुद्रा, 5.भूमि स्पर्शमुद्रा, 6.धर्मचक्रमुद्रा, 7.वज्रमुद्रा, 8.वितर्कमुद्रा, 8.जनाना मुद्रा, 10.कर्णमुद्रा, 11.शरणागतमुद्रा, 12.ध्यान मुद्रा, 13.सुची मुद्रा, 14.ओम मुद्रा, 15.जनाना और चीन मुद्रा, 16.अंगुलियां मुद्रा 17.महात्रिक मुद्रा, 18.कुबेर मुद्रा, 19.चीन मुद्रा, 20.वरद मुद्रा, 21.मकर मुद्रा, 22.शंख मुद्रा, 23.रुद्र मुद्रा, 24.पुष्पपूत मुद्रा, 25.वज्र मुद्रा, 26श्वांस मुद्रा, 27.हास्य बुद्धा मुद्रा, 28.योग मुद्रा, 29.गणेश मुद्रा 30.डॉयनेमिक मुद्रा, 31.मातंगी मुद्रा, 32.गरुड़ मुद्रा, 33.कुंडलिनी मुद्रा, 34.शिव लिंग मुद्रा, 35.ब्रह्मा मुद्रा, 36.मुकुल मुद्रा, 37.महर्षि मुद्रा, 38.योनी मुद्रा, 39.पुशन मुद्रा, 40.कालेश्वर मुद्रा, 41.गूढ़ मुद्रा, 42.मेरुदंड मुद्रा, 43.हाकिनी मुद्रा, 45.कमल मुद्रा, 46.पाचन मुद्रा, 47.विषहरण मुद्रा या निर्विषिकरण मुद्रा, 48.आकाश मुद्रा, 49.हृदय मुद्रा, 50.जाल मुद्रा आदि।

9.प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियां मनुष्य को बाहरी विषयों में उलझाए रखती है।। प्रत्याहार के अभ्यास से साधक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है। जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार प्रत्याहरी मनुष्य की स्थिति होती है। यम नियम, आसान, प्राणायाम को साधने से प्रत्याहार की स्थिति घटित होने लगती है।

10.धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है। प्रत्याहार के सधने से धारणा स्वत: ही घटित होती है। धारणा धारण किया हुआ चित्त कैसी भी धारणा या कल्पना करता है, तो वैसे ही घटित होने लगता है। यदि ऐसे व्यक्ति किसी एक कागज को हाथ में लेकर यह सोचे की यह जल जाए तो ऐसा हो जाता है।

11.ध्यान : जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

ध्यान के रूढ़ प्रकार:- स्थूल ध्यान, ज्योतिर्ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।

ध्यान विधियां:- श्वास ध्यान, साक्षी भाव, नासाग्र ध्यान, विपश्यना ध्यान आदि हजारों ध्यान विधियां हैं।

12.समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियां हैं : 1.सम्प्रज्ञात और 2.असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। इसे बौद्ध धर्म में संबोधि, जैन धर्म में केवल्य और हिन्दू धर्म में मोक्ष प्राप्त करना कहते हैं। इस सामान्य भाषा में मुक्ति कहते हैं।

पुराणों में मुक्ति के 6 प्रकार बताएं गए है जो इस प्रकार हैं- 1.साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), 2.सालोक्य (लोक की प्राप्ति), 3.सारूप (ब्रह्मस्वरूप), 4.सामीप्य, (ब्रह्म के पास), 5.साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) 6.लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

*योगाभ्यास की बाधाएं: आहार, प्रयास, प्रजल्प, नियमाग्रह, जनसंग और लौल्य। इसी को सामान्य भाषा में आहार अर्थात अतिभोजन, प्रयास अर्थात आसनों के साथ जोर-जबरदस्ती, प्रजल्प अर्थात अभ्यास का दिखावा, नियामाग्रह अर्थात योग करने के कड़े नियम बनाना, जनसंग अर्थात अधिक जनसंपर्क और अंत में लौल्य का मतलब शारीरिक और मानसिक चंचलता।
1.राजयोग:- यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि यह पतंजलि के राजयोग के आठ अंग हैं। इन्हें अष्टांग योग भी कहा जाता है।

2.हठयोग:- षट्कर्म, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि- ये हठयोग के सात अंग है, लेकिन हठयोगी का जोर आसन एवं कुंडलिनी जागृति के लिए आसन, बंध, मुद्रा और प्राणायम पर अधिक रहता है। यही क्रिया योग है।

3.लययोग:- यम, नियम, स्थूल क्रिया, सूक्ष्म क्रिया, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। उक्त आठ लययोग के अंग है।

4.ज्ञानयोग :- साक्षीभाव द्वारा विशुद्ध आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना ही ज्ञान योग है। यही ध्यानयोग है।

5.कर्मयोग:- कर्म करना ही कर्म योग है। इसका उद्येश्य है कर्मों में कुशलता लाना। यही सहज योग है।

6.भक्तियोग : – भक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप- इन नौ अंगों को नवधा भक्ति कहा जाता है। भक्ति योगानुसार व्यक्ति सालोक्य, सामीप्य, सारूप तथा सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त होता है, जिसे क्रमबद्ध मुक्ति कहा जाता है।

*कुंडलिनी योग : कुंडलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है, जो ध्यान के गहराने के साथ ही सभी चक्रों से गुजरती हुई सहस्रार चक्र तक पहुंचती है। ये चक्र 7 होते हैं:- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार। 72 हजार नाड़ियों में से प्रमुख रूप से तीन है: इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा और पिंगला नासिका के दोनों छिद्रों से जुड़ी है जबकि सुषुम्ना भ्रकुटी के बीच के स्थान से। स्वरयोग इड़ा और पिंगला के विषय में विस्तृत जानकारी देते हुए स्वरों को परिवर्तित करने, रोग दूर करने, सिद्धि प्राप्त करने और भविष्यवाणी करने जैसी शक्तियाँ प्राप्त करने के विषय में गहन मार्गदर्शन होता है। दोनों नासिका से सांस चलने का अर्थ है कि उस समय सुषुम्ना क्रियाशील है। ध्यान, प्रार्थना, जप, चिंतन और उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यही समय सर्वश्रेष्ठ होता है।

योग का संक्षिप्त इतिहास (History of Yoga) : योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।

दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ई.पू. में हुई। गुरु-शिष्य परम्परा के द्वारा योग का ज्ञान परम्परागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।

भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने ‘सिंधु सरस्वती सभ्यता’ को खोजा था जिसमें प्राचीन हिंदू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बी.सी.ई. पूराना माना जाता है।
योग ग्रंथ योग सूत्र (Yoga Sutras Books) : वेद, उपनिषद्, भगवद गीता, हठ योग प्रदीपिका, योग दर्शन, शिव संहिता और विभिन्न तंत्र ग्रंथों में योग विद्या का उल्लेख मिलता है। सभी को आधार बनाकर पतंजलि ने योग सूत्र लिखा। योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है- योगसूत्र। योगसूत्र को पांतजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इस ग्रंथ पर अब तक हजारों भाष्य लिखे गए हैं, लेकिन कुछ खास भाष्यों का यहां उल्लेख लिखते हैं।

व्यास भाष्य: व्यास भाष्य का रचना काल 200-400 ईसा पूर्व का माना जाता है। महर्षि पतंजलि का ग्रंथ योग सूत्र योग की सभी विद्याओं का ठीक-ठीक संग्रह माना जाता है। इसी रचना पर व्यासजी के ‘व्यास भाष्य’ को योग सूत्र पर लिखा प्रथम प्रामाणिक भाष्य माना जाता है। व्यास द्वारा महर्षि पतंजलि के योग सूत्र पर दी गई विस्तृत लेकिन सुव्यवस्थित व्याख्या।

तत्त्ववैशारदी : पतंजलि योगसूत्र के व्यास भाष्य के प्रामाणिक व्याख्याकार के रूप में वाचस्पति मिश्र का ‘तत्त्ववैशारदी’ प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। वाचस्पति मिश्र ने योगसूत्र एवं व्यास भाष्य दोनों पर ही अपनी व्याख्या दी है। तत्त्ववैशारदी का रचना काल 841 ईसा पश्चात माना जाता है।

योगवार्तिक : विज्ञानभिक्षु का समय विद्वानों के द्वारा 16वीं शताब्दी के मध्य में माना जाता है। योगसूत्र पर महत्वपूर्ण व्याख्या विज्ञानभिक्षु की प्राप्त होती है जिसका नाम ‘योगवार्तिक’ है।

भोजवृत्ति : भोज के राज्य का समय 1075-1110 विक्रम संवत माना जाता है। धरेश्वर भोज के नाम से प्रसिद्ध व्यक्ति ने योग सूत्र पर जो ‘भोजवृत्ति नामक ग्रंथ लिखा है वह भोजवृत्ति योगविद्वजनों के बीच समादरणीय एवं प्रसिद्ध माना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे 16वीं सदी का ग्रंथ मानते हैं।

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अष्टांग योग : इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम अष्टांग योग योग के नाम से जानते हैं। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में… श्रेणीबद्ध कर दिया है। लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग-सूत्र की रचना की। योग-सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है।

यह आठ अंग हैं- (1)यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

योग सूत्र : 200 ई.पू. रचित महर्षि पतंजलि का ‘योगसूत्र’ योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।

प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है। द्वितीय पाद में पाँच बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है।

तृतीय पाद में अंतरंग तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।

चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।

‌दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं- ‘योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः’। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है:-


‌ 1).यम: कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।

‌(2).नियम: मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार के शुद्धि समाविष्ट है

(3).आसन: पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित ‘हठयोग प्रतीपिका’ ‘घरेण्ड संहिता’ तथा ‘योगाशिखोपनिषद्’ में विस्तार से वर्णन मिलता है।
(4).प्राणायाम: योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।

(5).प्रत्याहार: इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।

(6).धारणा: चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है।

(7).ध्यान: जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।

(8).समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

समाधि की भी दो श्रेणियाँ हैं : सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।,

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योग साधना द्वारा जीवन विकास

योग का नाम सुनते ही कितने ही लोग चौंक उठते हैं उनकी निगाह में यह एक ऐसी चीज है जिसे लम्बी जटा वाला और मृग चर्मधारी साधु जंगलों या गुफाओं में किया करते हैं। इसलिये वे सोचते हैं कि ऐसी चीज से हमारा क्या सम्बन्ध? हम उसकी चर्चा ही क्यों करें?

पर ऐसे विचार इस विषय में उन्हीं लोगों के होते हैं जिन्होंने कभी इसे सोचने-विचारने का कष्ट नहीं किया। अन्यथा योग जीवन की एक सहज, स्वाभाविक अवस्था है जिसका उद्देश्य समस्त मानवीय इन्द्रियों और शक्तियों का उचित रूप से विकास करना और उनको एक नियम में चलाना है। इसीलिये योग शास्त्र में “चित्त वृत्तियों का निरोध” करना ही योग बतलाया गया है। गीता में ‘कर्म की कुशलता’ का नाम योग है तथा ‘सुख-दुख के विषय में समता की बुद्धि रखने’ को भी योग बतलाया गया है। इसलिये यह समझना कोरा भ्रम है कि समाधि चढ़ाकर, पृथ्वी में गड्ढा खोदकर बैठ जाना ही योग का लक्षण है। योग का उद्देश्य तो वही है जो योग शास्त्र में या गीता में बतलाया गया है। हाँ इस उद्देश्य को पूरा करने की विधियाँ अनेक हैं, उनमें से जिसको जो अपनी प्रकृति और रुचि के अनुकूल जान पड़े वह उसी को अपना सकता है। नीचे हम एक योग विद्या के ज्ञाता के लेख से कुछ ऐसा योगों का वर्णन करते हैं जिनका अभ्यास घर में रहते हुये और सब कामों को पूर्ववत् करते हुये अप्रत्यक्ष रीति से ही किया जा सकता है-

(1) कैवल्य योग-कैवल्य स्थिति को योग शास्त्र में सबसे बड़ा माना गया है। दूसरों का आश्रय छोड़कर पूर्ण रूप से अपने ही आधार पर रहना और प्रत्येक विषय में अपनी शक्ति का अनुभव करना इसका ध्येय हैं। साधारण स्थिति में मनुष्य अपने सभी सुखों के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। यह एक प्रकार की पराधीनता है और पराधीनता में दुख होना आवश्यक है। इसलिये योगी सब दृष्टियों से पूर्ण स्वतंत्र होने की चेष्टा करते हैं। जो इस आदर्श के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं वे ही कैवल्य की स्थिति में अथवा मुक्तात्मा समझे जा सकते हैं। पर कुछ अंशों में इसका अभ्यास सब कोई कर सकते हैं और उसके अनुसार स्वाधीनता का सुख भी भोग सकते हैं।

(2) सुषुप्ति योग-निद्रावस्था में भी मनुष्य एक प्रकार की समाधि का अनुभव कर सकता है। जिस समय निद्रा आने लगती है उस समय यदि पाठक अनुभव करने लगेंगे तो एक वर्ष के अभ्यास से उनको आत्मा के अस्तित्व को ज्ञान हो जायेगा। सोते समय जैसा विचार करके सोया जायगा उसका शरीर और मन पर प्रभाव अवश्य पड़ेगा। जिस व्यक्ति को कोई बीमारी रहती है वह यदि सोने के समय पूर्ण आरोग्य का विचार मन में लायेगा और “मैं बीमार नहीं हूँ।” ऐसे श्रेष्ठ संकल्प के साथ सोयेगा तो आगामी दिन से बीमारी दूर होने का अनुभव होने लगेगा। सुषुप्ति योग की एक विधि यह भी है कि निद्रा आने के समय जिसको जागृति और निद्रा संधि समय कहा जाता है, किसी उत्तम मंत्र का जप अर्थ का ध्यान रखते हुए करना और वैसे करते ही सो जाना। तो जब आप जगेंगे तो वह मंत्र आपको अपने मन में उसी प्रकार खड़ा मिलेगा। जब ऐसा होने लगे तब आप यह समझ लीजिये कि आप रात भर जप करते रहें। यह जप बिस्तरे पर सोते-सोते ही करना चाहिये और उस समय अन्य किसी बात को ध्यान मन में नहीं लाना चाहिये।
(3) स्वप्न योग – स्वप्न मनुष्य को सदा ही आया करते हैं, उनमें से कुछ अच्छे होते हैं और कुछ खराब। इसका कारण हमारे शुभ और अशुभ विचार ही होते हैं। इसलिये आप सदैव श्रेष्ठ विचार और कार्य करके तथा सोते समय वैसा ही ध्यान करके उत्तम स्वप्न देख सकते हैं। इसके लिये जैसा आपका उद्देश्य हो वैसा ही विचार भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिये यदि आपकी इच्छा ब्रह्मचर्य पालन की हो तो भीष्म पितामह का ध्यान कीजिये, दृढ़ व्रत और सत्य प्रेम होना हो तो श्रीराम चंद्र की कल्पना कीजिये, बलवान बनने का ध्येय हो तो भीमसेन का अथवा हनुमान जी का स्मरण कीजिये। आप सोते समय जिसकी कल्पना और ध्यान करेंगे स्वप्न में आपको उसी विषय का अनुभव होता रहेगा।

(4) बुद्धियोग – तर्क-वितर्क से परे और श्रद्धा-भक्ति से युक्त निश्चयात्मक ज्ञान धारक शक्ति का नाम ही बुद्धि है। ऐसी ही बुद्धि की साधना से योग की विलक्षण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। यद्यपि अपने को आस्तिक मानने से आप परमेश्वर पर भरोसा रखते हैं, पर तर्क-युक्त बात ऐसे योग में काम नहीं देती। अपना अस्तित्व आप जिस प्रकार बिना किसी प्रमाण के मानते हैं, इसी प्रकार बिना किसी प्रमाण का ख्याल किये सर्व मंगलमय परमात्मा पर पूरा विश्वास रखने का प्रयत्न और अभ्यास करना चाहिए। जो लोग बुद्धि योग में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं उनको ऐसी ही तर्क रहित श्रद्धा उत्पन्न करनी चाहिए तभी आपको परमात्मा विषयक सच्चा आनन्द प्राप्त हो सकेगा।

(5) चित्त योग-चिन्तन करने वाली शक्ति को चित्त कहते हैं। योग-साधना में जो आपका अभीष्ट है उसकी चिन्ता सदैव करते रहिये। अथवा अभ्यास करने के लिए प्रतिमास कोई अच्छा विचार चुन लीजिये। जैसे “मैं आत्मा हूँ और मैं शरीर से भिन्न हूँ।” इसका सदा ध्यान अथवा चिन्तन करने से आपको धीरे-धीरे अपनी आत्मा और शरीर का भिन्नत्व स्पष्ट प्रतीत होने लगेगा। इस प्रकार अच्छे कल्याणकारी विचारों का चिन्तन करने से बुरे विचारों का आना सर्वथा बन्द हो जायगा और आपको अपना जीवन आनन्दपूर्ण जान पड़ने लगेगा।

(6) इच्छा योग -जिससे मनुष्य किसी बात की प्राप्ति अथवा निवृत्ति की इच्छा करता है उसको इच्छा शक्ति कहते हैं। मनो-विज्ञान की दृष्टि से इच्छा शक्ति का प्रभाव अपार है, जिसके द्वारा सब तरह का महान् कार्य सिद्ध किया जा सकता है। बुराई से बचने का मुख्य साधन इच्छा शक्ति है। आप अपनी प्रबल इच्छाशक्ति द्वारा रोगों के आक्रमण को रोक सकते हैं। मानसिक प्रेरणा देने से बड़ी-बड़ी बीमारियाँ दूर हो सकती हैं। चरित्र सम्बन्धी सब दोषों को भी इच्छा शक्ति द्वारा दूर किया जा सकता है ओर उत्तम आचरण ग्रहण किये जा सकते हैं। यह शक्ति प्रत्येक में होती है, प्रश्न केवल उसे बुराई की तरफ से भलाई की तरफ प्रेरित करने का है।

(7) मानस योग -मन का धर्म अच्छे और बुरे विचार करना है। मन को एकाग्र करने से उसकी शक्ति बहुत बढ़ सकती है और उसे उन्नति तथा कल्याण के कार्यों में लगाया जा सकता है। इसके लिये अभ्यास द्वारा मन को आज्ञाकारी बनाना चाहिये जिससे वह उन्हीं विचारों में लगे जिनको आप उत्तम समझते हैं।

(8) अहंकार-योग -अहंकार शब्द का अर्थ ‘घमंड” भी होता है पर यहाँ उस अर्थ से हमारा तात्पर्य नहीं है। यहाँ पर इसका भाव अपनी अन्तरात्मा से है। अहंकार योग का उद्देश्य यह है कि मनुष्य अपने को भौतिक शरीर से भिन्न समझे और आत्मा के अजर, अमर, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिशाली आदि गुणों का ध्यान करके उनको ग्रहण करने का प्रयत्न करे। जब मनुष्य के भीतर यह विचार जम जाता है तो वह जिस कार्य का या अनुष्ठान का निश्चय कर लेता है, उसे फिर पूरा करके ही रहता है, क्योंकि उसे यह दृढ़ विश्वास होता है कि मैं शक्तिशाली आत्मा का रूप हूँ जिसके लिए कोई कार्य असंभव नहीं।

(9) ज्ञानेन्द्रिय-योग -ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच मानी गई हैं-आँख, कान, नाक, जीभ, चर्म। इनका सम्बन्ध क्रमशः अग्नि, आकाश, पृथ्वी, जल और वायु के साथ होता है। इनमें योग साधन के लिये सबसे प्रमुख इन्द्री आँख को माना गया है। मन की एकाग्रता प्राप्त करने के लिये आँखों की दृष्टि को किसी एक स्थान या केन्द्र पर जमाना होता है। इससे मन की शक्ति बढ़ जाती है और उसका दूसरों पर विशेष रूप से प्रभाव पड़ने लगता है। इसके द्वारा फिर अन्य इन्द्रियों पर भी कल्याणकारी प्रभाव पड़ने लगता है।

(10) कर्मेन्द्रिय-योग -कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं-वाणी, हाथ, पाँव, गुदा और शिश्न। इनमें सबसे अधिक उपयोग वाणी का ही होता है और वह मानव-जीवन के विकास का सबसे बड़ा साधन है। वाणी द्वारा हम जो शब्द उच्चारण करते हैं उनमें बड़ी शक्ति होती है। योग साधन वाले को वाणी से सदैव उत्तम और हितकारी शब्द ही निकालने चाहिये। इस प्रकार का अभ्यास करने से अंत में आपको वाक्सिद्धि की शक्ति प्राप्त हो सकेगी।
वास्तव में मनुष्य का समस्त जीवन ही एक प्रकार का योग है। मनुष्य के रूप में आकर जीवात्मा, परमात्मा को पहिचान सकता है और उसे प्राप्त कर सकता है। इसलिये हमको अपनी प्रत्येक शक्ति को एक विशेष उद्देश्य और नियम के साथ विकसित करनी चाहिये जिससे वह उन्नत होती चली जाय। अगर मनुष्य इस प्रयत्न में सच्चे मन से बराबर लगा रहेगा तो उसे सब प्रकार की दैवी शक्तियाँ प्राप्त हो जायेंगी और वह परमात्मा के निकट पहुँचता जायगा।

Note-यह लेख मेरा मौलिक नही है।विभिन्न ज्ञात-अज्ञात पत्र-पत्रिकाओं,लेखों,और भाषणों से अक्षरशः उधार लिया गया है।इसका उद्देश्य केवल योग का प्रचार प्रसार है।

Sunday

ज्यादा से ज्यादा भारतियों को इंटरनेट से जोड़ने की एक पहल - 1 करोड़ रेल यात्रियों प्रतिदिन से शुरुआत

(To read in English, please scroll down)

Bringing the Internet to more Indians – starting with 10 million rail passengers a day


जब मैं एक छात्र था, मैं चेन्नई सेंट्रल स्टेशन (तब मद्रास सेंट्रल के रूप में जाना जाता था) से आईआईटी खड़गपुर की दिन की रेल यात्रापसंद करता था । मुझे विभिन्न स्टेशनों पर उन्मत्त ऊर्जा की याद आज भी ताजा है और मैं भारतीय रेल के अविश्वसनीय स्तर और विस्तार पर अचम्भा करता था ।




मुझे यह घोषणा करते हुए बहुत गर्व हो रहा है कि ये भारत के रेलवे स्टेशन हैं जो करोड़ों लोगों को ऑनलाइन लाने में मदद करेंगे । पिछले साल, भारत में 10 करोड़ लोगों ने पहली बार इंटरनेट उपयोग शुरू किया है । इसका मतलब यह है कि भारत में अब चीन को छोड़ कर हर देश से अधिक इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं । पर चौंकाने वाली बात ये है की भारत में अभी भी 100 करोड़ से ज़्यादा लोग ऑनलाइन नहीं हैं । 

हम इन 100 करोड़ भारतवासियों को ऑनलाइन लाने में मदद करना चाहते हैं - ताकि उन्हें पूरे वेब तक पहुँच मिल सके, और वहां मौजूद जानकारी और अवसर भी । और किसी पुराने कनेक्शन से नहीं - तेज़ ब्रॉडबैंड से ताकि वे वेब का सबसे अच्छा अनुभव कर सकें । इसलिए आज, भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के हमारे U.S. मुख्यालय में उपस्थित होने के अवसर पर, और उनकी डिजिटल इंडिया पहल के अनुरूप, हमने भारत भर में 400 रेलवे स्टेशनों में सार्वजनिक उच्च गति वाई-फाई उपलब्ध कराने के लिए एक नई परियोजना की घोषणा की है ।

हमारी पहुंच और ऊर्जा टीम की, भारतीय रेलवेज, जो कि दुनिया के सबसे बड़े रेलवे नेटवर्कों में से एक चला रही है, और रेलटेल, जो व्यापक फाइबर नेटवर्क के माध्यम से रेलवायर जैसी इंटरनेट सेवाएं प्रदान करता है, के साथ काम करते हुए आने वाले महीनों में पहले स्टेशनों को ऑनलाइन लाने की योजना है। यह नेटवर्क 2016 के अंत से पहले भारत में सबसे व्यस्त स्टेशनों में से 100 को कवर करने के लिए तेजी से विस्तार करेगा, और शेष स्टेशन उसके बाद जल्द ही कवर होंगे । 


जब सिर्फ पहले 100 स्टेशन ऑनलाइन होंगे, तब भी इस परियोजना के माध्यम से हर दिन 1 करोड़ से अधिक लोगों के लिए वाई-फाई उपलब्ध होगा। यह भारत में सबसे बड़ी सार्वजनिक वाई-फाई परियोजना होगी, और संभावित उपयोगकर्ताओं की संख्या के हिसाब से दुनिया की सबसे बड़ी परियोजनाओं में गिनी जाएगी । यह वाई-फाई तेज़ भी होगा - भारत में अधिकतम लोग आज जो उपयोग करते हैं उसकी तुलना में कई गुना तेज़ । इस से यात्री जितनी देर इंतज़ार कर रहे हैं उतनी देर में एक उच्च परिभाषा वीडियो स्ट्रीम कर पाएंगे, अपने गंतव्य के बारे में कुछ अनुसंधान कर पाएंगे या कुछ वीडियो, एक पुस्तक या एक नया खेल डाउनलोड कर पाएंगे । सबसे अच्छी बात, यह सेवा शुरू में मुफ्त होगी, और भविष्य में इसे आत्मनिर्भर बनाने का दीर्घकालीन लक्ष्य है ताकि रेलटेल और अधिक भागीदारों के साथ अधिक स्टेशनों और अन्य स्थानों में इसका विस्तार किया जा सके । 

हमें लगता है कि यह 30 करोड़ से अधिक भारतीय जो पहले से ही ऑनलाइन हैं और लगभग एक अरब से अधिक है जो नहीं हैं, उनके लिए इंटरनेट को सुलभ और उपयोगी बनाने का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । 

पर यह सिर्फ एक हिस्सा है । अधिक भारतीयों को सस्ती, उच्च गुणवत्ता वाले स्मार्टफोन्स प्राप्त करने के लिए, जो अधिकतम लोगों के लिए इंटरनेट का उपयोग प्राथमिक तरीका है, हमने पिछले साल एंड्राइड वन फ़ोन लांच किया था । सीमित बैंडविड्थ की चुनौतियों से निपटने में मदद करने के लिए, हम हाल ही में मोबाइल वेब पृष्ठों को तेजी से और कम डेटा के साथ लोड करने की सुविधा लाये हैं, यूट्यूब ऑफ़लाइन उपलब्ध बनाया है और ऑफलाइन मैप्स जल्द ही आने वाला है ।

भारतीयों, जिनमे से कई अंग्रेजी नहीं बोलते, के लिए वेब सामग्री और अधिक उपयोगी बनाने में मदद करने के लिए और अधिक स्थानीय भाषा की सामग्री को बढ़ावा देने के लिए हमने पिछले साल भारतीय भाषा इंटरनेट एलायंस की शुरूआत की है, और हमारे उत्पादों में अधिक से अधिक स्थानीय भाषा समर्थन का निर्माण किया है - हिंदी वॉयस खोज, उन्नत हिंदी कीबोर्ड और एंड्राइड के नवीनतम संस्करण में सात भारतीय भाषाओं के लिए समर्थन में सुधार । और अंत में, सभी भारतीयों को कनेक्टिविटी का लाभ लेने में मदद करने के लिए, हमने महिलाओं, जो कि आज भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं का सिर्फ एक तिहाई भाग हैं, की मदद करने में अपने प्रयास और तेज़ किये हैं ताकि वे वेब से अधिकतम लाभ उठा सकें । 

हज़ारों युवा भारतीय हर दिन चेन्नई सेंट्रल से निकलते हैं, जैसे मैं कई साल पहले निकलता था, सीखने और जानने के लिए उत्सुक, और अवसर की तलाश में । मेरी आशा है कि यह वाई-फाई परियोजना इन सब बातों को थोड़ा आसान कर देगी । 

सुन्दर पिचई, सीईओ, गूगल के द्वारा प्रकाशित

Bringing the Internet to more Indians – starting with 10 million rail passengers a day

When I was a student, I relished the day-long railway journey I would make from Chennai Central station (then known as Madras Central) to IIT Kharagpur. I vividly remember the frenetic energy at the various stations along the way and marveled at the incredible scale and scope of Indian Railways.

I’m very proud to announce that it’s the train stations of India that are going to help get millions of people online. In the past year, 100 million people in India started using the Internet for the first time. This means there are now more Internet users in India than in every country in the world aside from China. But what's really astounding is the fact that there are still nearly one billion people in India who aren’t online.

We’d like to help get these next billion Indians online—so they can access the entire web, and all of its information and opportunity. And not just with any old connection—with fast broadband so they can experience the best of the web. That’s why, today, on the occasion of Indian Prime Minister Narendra Modi’s visit to our U.S. headquarters, and in line with his Digital India initiative, we announced a new project to provide high-speed public Wi-Fi in 400 train stations across India.

Working with Indian Railways, which operates one of the world's largest railway networks, and RailTel, which provides Internet services as RailWire via its extensive fiber network along many of these railway lines, our Access & Energy team plans to bring the first stations online in the coming months. The network will expand quickly to cover 100 of the busiest stations in India before the end of 2016, with the remaining stations following in quick succession.

Even with just the first 100 stations online, this project will make Wi-Fi available for the more than 10 million people who pass through every day. This will rank it as the largest public Wi-Fi project in India, and among the largest in the world, by number of potential users. It will also be fast—many times faster than what most people in India have access to today, allowing travelers to stream a high definition video while they’re waiting, research their destination, or download some videos, a book or a new game for the journey ahead. Best of all, the service will be free to start, with the long-term goal of making it self-sustainable to allow for expansion to more stations and other places, with RailTel and more partners, in the future.

We think this is an important part of making the Internet both accessible and useful for the more than 300 million Indians already online, and the nearly one billion more who are not.

But it’s not the only piece. To help more Indians get access to affordable, high-quality smartphones, which is the primary way most people there access the Internet, we launched Android One last year. To help address the challenges of limited bandwidth, we recently launched a feature that makes mobile webpages load faster and with less data, and we’ve made YouTube available offline with offline Maps coming soon

To help make web content more useful for Indians, many of whom don’t speak English, we launched the Indian Language Internet Alliance last year to foster more local language content, and have built greater local language support into our products—including Hindi Voice Search, an improved Hindi keyboard and support for seven Indian languages with the latest versions of Android. And finally, to help all Indians reap the benefits of connectivity, we’ve been ramping up efforts to help women, who make up just a third of Internet users in India today, get the most from the web.

Just like I did years ago, thousands of young Indians walk through Chennai Central every day, eager to learn, to explore and to seek opportunity. It’s my hope that this Wi-Fi project will make all these things a little easier. 

Posted by Sundar Pichai, CEO, Google